आ꣡ या꣢हि सुषु꣣मा꣢꣫ हि त꣣ इ꣢न्द्र꣣ सो꣢मं꣣ पि꣡बा꣢ इ꣣म꣢म् । एदं꣢꣫ ब꣣र्हिः꣡ स꣢दो꣣ म꣡म꣢ ॥६६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम् । एदं बर्हिः सदो मम ॥६६६॥
आ꣢ । याहि꣣ । सुषुम꣢ । हि । ते꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । सो꣡मम्꣢꣯ । पिब । इ꣡म꣢꣯म् । आ । इ꣣द꣢म् । ब꣣र्हिः꣢ । स꣣दः । म꣡म꣢꣯ ॥६६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में १९१ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। अब जीवात्मा के विषय में व्याख्या दी जा रही है। इन्द्र नाम से अपने अन्तरात्मा को सम्बोधन किया गया है।
हे (इन्द्र) अन्तरात्मन् ! तू (आयाहि) आ, (ते) तेरे लिए, हमने (सोमम्) ज्ञानरस को (सुषुम) आँख, कान आदि ज्ञान के साधनों से अभिषुत किया है। तू (इमम्) इस ज्ञानरस को (पिब) पी, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त इस ज्ञान का मनन कर। तू (इदम्) इस (मम) मेरे (बर्हिः) हृदयासन पर (आ सदः) बैठा हुआ है ॥१॥
मन के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान का मनन और निदिध्यासन द्वारा पूर्ण साक्षात्कार करना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १९१ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्याचार्यविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्म१विषये व्याख्यायते। इन्द्रनाम्ना स्वान्तरात्मानं सम्बोधयति।
हे (इन्द्र) अन्तरात्मन् ! (त्वम्) आयाहि आगच्छ, वयम् (ते) तुभ्यम् (सोमम्) ज्ञानरसं (सुषुम) चक्षुःश्रोत्रादिभिः ज्ञानसाधनैः अभिषुतवन्तः। त्वम् (इमम्) ज्ञानरसम् (पिब) आस्वादय, ज्ञानेन्द्रियैरुपलब्धं ज्ञानं मनसा मनुष्वेत्यर्थः। त्वम् (इदम्) एतत् (मम) मदीयम् (बर्हिः) हृदयासनम् (आ सदः) आसन्नोऽसि ॥१॥
मनोमाध्यमेन ज्ञानेन्द्रियैः प्राप्तस्य ज्ञानस्य मनननिदिध्यासनाभ्यां पूर्णसाक्षात्कारो विधेयः ॥१॥