गृ꣣णाना꣢ ज꣣म꣡द꣢ग्निना꣣ यो꣡ना꣢वृ꣣त꣡स्य꣢ सीदतम् । पा꣣त꣡ꣳ सोम꣢꣯मृतावृधा ॥६६५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)गृणाना जमदग्निना योनावृतस्य सीदतम् । पातꣳ सोममृतावृधा ॥६६५॥
गृणाना꣢ । ज꣣म꣡द꣢ग्निना । ज꣣म꣢त् । अ꣣ग्निना । यो꣡नौ꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सी꣣दतम् । पात꣢म् । सो꣡म꣢꣯म् । ऋ꣣तावृधा । ऋत । वृधा ॥६६५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा और जीवात्मा का आह्वान किया गया है।
हे परमात्मा-जीवात्मा रूप मित्र-वरुणो ! (जमदग्निना) अग्निहोत्रार्थ अग्नि को प्रज्वलित करनेवाले यजमान से (गृणाना) स्तुति किये जाते हुए तुम दोनों (ऋतस्य यौनौ) सत्य के मन्दिर हृदय में (सीदतम्) स्थित रहो। हे (ऋतावृधा) सत्य के बढ़ानेवालो ! तुम दोनों (सोमम्) शान्ति की (पातम्) रक्षा करो ॥३॥
परमात्मा से प्रेरणा पाकर जीवात्माएँ जब जगत् में शान्ति-रक्षा का प्रयत्न करती हैं, तभी आपस में सौहार्द और सांमनस्य उत्पन्न होता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मजीवात्मानौ आह्वयति।
हे मित्रावरुणौ परमात्मजीवात्मानौ (जमदग्निना२) प्रज्वलिताग्निना यजमानेन। [जमदग्नयः प्रजमिताग्नयो वा प्रज्वलिताग्नयो वा। निरु० ७।२५।] (गृणाना) गीर्यमाणौ स्तूयमानौ युवाम्। [अत्र कर्मणि शानच्।] (ऋतस्य योनौ) सत्यस्य सदने हृदये (सीदतम्) तिष्ठतम्। हे (ऋतावृधौ३) ऋतावृधौ सत्यस्य वर्धकौ ! युवाम् (सोमम्) शान्तिम् (पातम्) रक्षतम् ॥३॥
परमात्मनः सकाशात् प्रेरणां प्राप्य जीवात्मानो यदा जगति शान्तिरक्षणाय प्रयतन्ते तदैव परस्परं सहृदयत्वं सांमनस्यं च जायते ॥३॥