आ꣡ नो꣢ मित्रावरुणा घृ꣣तै꣡र्गव्यू꣢꣯तिमुक्षतम् । म꣢ध्वा꣣ र꣡जा꣢ꣳसि सुक्रतू ॥६६३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम् । मध्वा रजाꣳसि सुक्रतू ॥६६३॥
आ꣢ । नः꣣ । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । घृतैः꣢ । ग꣡व्यू꣢꣯तिम् । गो । यू꣣तिम् । उक्षतम् । म꣡ध्वा꣢꣯ । र꣡जा꣢꣯ꣳसि । सुक्रतू । सु । क्रतूइ꣡ति꣢ ॥६६३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर मित्र वरुण नाम से परमात्मा और जीवात्मा की स्तुति की गयी है।
हे (शुचिव्रता) पवित्र कर्मोंवाले परमात्मा और जीवात्मा ! (उरुशंसा) बहुत प्रशंसा को प्राप्त, (नमोवृधा) नमस्कार को ग्रहण कर बढ़ानेवाले व नमस्कार के प्रदान से वृद्धि४ को प्राप्त तुम (दक्षस्य) बल की (मह्ना) महिमा से और (द्राघिष्ठाभिः) अतिशय दीर्घ क्रियाओं, सम्पत्तियों वा स्तुतियों से (राजथः) राजा बने हुए हो ॥२॥
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सम्राट् महाबली परमेश्वर का ध्यान करके और देहपिण्ड के सम्राट् जीवात्मा को भली-भाँति उद्बोधन देकर सब स्त्री-पुरुषों को अपनी उन्नति करनी चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्मित्रावरुणनाम्ना परमात्मजीवात्मानौ स्तौति।
अगले मन्त्र में फिर मित्र वरुण नाम से परमात्मा और जीवात्मा की स्तुति की गयी है।
हे (शुचिव्रता) शुचिव्रतौ पवित्रकर्माणौ मित्रावरुणौ परमात्मजीवात्मानौ ! (उरुशंसा) उरुशंसौ बहुप्रशंसितौ, (नमोवृधा) नमोवृधौ नमसा नमस्कारग्रहणेन नमस्कारदानेन च वर्धकवृद्धौ२ युवाम् (दक्षस्य) बलस्य मह्ना महिम्ना, (द्राघिष्ठाभिः३) अतिशयेन दीर्घाभिः क्रियाभिः सम्पद्भिः स्तुतिभिश्च (राजथः) राजेथे ॥२॥