अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये । नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥६६०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि होता सत्सि बर्हिषि ॥६६०॥
अ꣡ग्ने꣢꣯ । आ । या꣣हि । वीत꣡ये꣢ । गृ꣣णानः꣢ । ह꣣व्य꣡दा꣢तये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये । नि꣢ । हो꣡ता꣢꣯ । स꣣त्सि । बर्हि꣡षि꣢ ॥६६०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक क्रमाङ्क १ पर परमात्मा, विद्वान् और राजा के पक्ष में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ यज्ञाग्नि और जीवात्मा के पक्ष में व्याख्या की जा रही है।
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। अग्निहोत्र के माध्यम से परमात्मा के तेज को अपने हृदय में प्रदीप्त करना चाहता हुआ उपासक यज्ञाग्नि का आह्वान कर रहा है। हे (अग्ने) यज्ञाग्नि ! तू (आयाहि) हमारे यज्ञ में आ। किसलिए? (वीतये) हवियों को खाने के लिए। (गृणानः) मन्त्रपाठ द्वारा हमसे स्तुति किया जाता हुआ अथवा हमारे रोग, पाप आदि को निगलता हुआ तू (हव्यदातये) दातव्य तेज आदि को देने के लिए, अथवा होमी हुई सुगन्धित, मधुर, पुष्टिप्रद तथा रोगनाशक गुणों से युक्त हवियों को सूक्ष्म करके वायुमण्डल में फैलाने के लिए आ। (होता) होमे हुए द्रव्यों का स्वीकार करनेवाला तथा आरोग्य, दीर्घायुष्य आदि को देनेवाला तू (बर्हिषि) यज्ञवेदि के आकाश में (नि सत्सि) बैठ। यहाँ अचेतन यज्ञाग्नि में चेतन के समान व्यवहार आलङ्कारिक है ॥ द्वितीय—आत्मोद्बोधन के पक्ष में। हे (अग्ने) मेरे अन्तरात्मन् ! तू (आयाहि) कर्मभूमि में पदार्पण कर। किसलिए? (वीतये) कर्म करने के लिए। (गृणानः) कर्मयोग का उपदेश करता हुआ तू (हव्यदातये) परोपकारार्थ आत्मोसर्ग करने के लिए आ। (होता) राष्ट्र के संगठन के लिए लोगों का आह्वान करनेवाला तू (बर्हिषि) उच्चपद पर (नि सत्सि) बैठ ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
सबको चाहिए कि ऋतु के अनुकूल हवियों से अग्निहोत्र द्वारा वायुमण्डल को सुगन्धित तथा रोग के कीटाणुओं से रहित करके और यज्ञाग्नि के समान तीव्र तेज को तथा परमात्मा की ज्योति को अपने अन्तःकरण में धारण करके भौतिक एवम् आध्यात्मिक सम्पत्ति प्राप्त करें। साथ ही ‘मेरे दाहिने हाथ में कर्म है तो बाएँ हाथ में विजय रखी हुई है।’ अथ० ७।५२।८ इस वैदिक सन्देश को मुखर करके अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देकर जनहित के महान् कर्म करने चाहिएँ और राष्ट्र के हितार्थ अपना बलिदान देने से भी नहीं हिचकना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १ क्रमाङ्के परमात्मविद्वन्नृपतीनां पक्षे व्याख्यातपूर्वा। अत्र यज्ञाग्निपक्षे जीवात्मपक्षे च व्याख्यायते।
प्रथमः—यज्ञाग्निपरः। अग्निहोत्रमाध्यमेन दिव्यं तेजः स्वान्तरात्मनि संदिदीपयिषुर्यज्ञाग्निमाह्वयति—हे (अग्ने) यज्ञवह्ने ! त्वम् (आयाहि) अस्मद्यज्ञमागच्छ। किमर्थम् ? (वीतये) हविषां भक्षणाय। (गृणानः२) मन्त्रपाठद्वाराऽस्माभिः स्तूयमानः रोगपापादीन् निगिरन् वा त्वम् [गॄ शब्दे क्र्यादिः, गॄ निगरणे तुदादिः।]। (हव्यदातये) हव्यानां देयानां तेजआदीनां दातिः दानं तस्मै, यद्वा हव्यानां हुतानां सुगन्धिमिष्टपुष्टिरोगनाशकगुणैर्युक्तानां हविषां दातिः सूक्ष्मीकृत्य वायुमण्डले प्रसारणं तस्मै, आयाहि। (होता) हुतद्रव्याणाम् आदाता आरोग्यदीर्घायुष्यादीनां प्रदाता च त्वम् (बर्हिषि) यज्ञवेद्या अन्तरिक्षे [बर्हिः इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३]। (नि सत्सि) निषीद। अत्राचेतने यज्ञाग्नौ चेतनवद् व्यवहार आलङ्कारिकः। द्वितीयः—जीवात्मोद्बोधनपरः। हे (अग्ने) मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (आयाहि) कर्मभूमिम् आगच्छ। किमर्थम् ? (वीतये) कर्मकरणाय। [वी धातुरत्र गत्यर्थः।] (गृणानः) कर्मयोगम् उपदिशन् (हव्यदातये) परोपकाराय स्वात्मार्पणं कर्त्तुम्, आयाहि। (होता) राष्ट्रसंघटनाय जनानाम् आह्वाता सन् (बर्हिषि) उच्चपदे (नि सत्सि) निषीद ॥१॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
सर्वैर्ऋत्वनुकूलहव्यैरग्निहोत्रेण वायुमण्डलं सुगन्धि रोगकृमिरहितं च निष्पाद्य यज्ञाग्निवत् तीव्रं तेजः परमात्मज्योतिश्च स्वान्तःकरणे निधाय भौतिकाध्यात्मिकसम्पत् प्राप्तव्या। किञ्च, ‘कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।’ अथ० ७।५२।८ इति वैदिकसन्देशं मुखरीकृत्य स्वात्मानं समुद्बोध्य जनहितकराणि महान्ति कर्माणि करणीयानि, राष्ट्रहिताय स्वबलिदानादपि च न भेतव्यम् ॥१॥