इ꣣म꣢꣫ꣳ स्तो꣣म꣡मर्ह꣢ते जा꣣त꣡वे꣢दसे र꣡थ꣢मिव꣣ सं꣡ म꣢हेमा मनी꣣ष꣡या꣢ । भ꣣द्रा꣢꣫ हि नः꣣ प्र꣡म꣢तिरस्य स꣣ꣳस꣡द्यग्ने꣢꣯ स꣣ख्ये꣡ मा रि꣢꣯षामा व꣣यं꣡ तव꣢꣯ ॥६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इमꣳ स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया । भद्रा हि नः प्रमतिरस्य सꣳसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥६६॥
इ꣣म꣢म् । स्तो꣡मम꣢꣯म् । अ꣡र्ह꣢꣯ते । जा꣣त꣡वे꣢दसे । जा꣣त꣢ । वे꣣दसे । र꣡थ꣢꣯म् । इ꣣व । स꣢꣯म् । म꣣हेम । मनीष꣡या꣢ । भ꣣द्रा꣢ । हि । नः꣣ । प्र꣡म꣢꣯तिः । प्र । म꣣तिः । अस्य । सँस꣡दि꣢ । सम् । स꣡दि꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । मा । रि꣣षाम । वय꣢म् । त꣡व꣢꣯ ॥६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमेश्वर की स्तुति और उसकी संगति से हम क्या प्राप्त करें।
(अर्हते) पूजायोग्य (जातवेदसे) सब उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता, सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान, सकल धन के उत्पादक और वेदज्ञान को प्रकट करनेवाले परमेश्वर के लिए (मनीषया) मनोयोग के साथ (स्तोमम्) स्तोत्र को (संमहेम) सत्कारपूर्वक भेजें, (रथम् इव) जैसे किसी पूज्य जन को बुलाने के लिए उसके पास रथ भेजा जाता है। (अस्य) इस परमेश्वर की (संसदि) संगति में (नः) हमारी (प्रमतिः) प्रखर बुद्धि (भद्रा हि) भद्र ही होती है। हे (अग्ने) तेजस्वी परमात्मन् ! (वयम्) हम प्रजाजन (तव) आपकी (सख्ये) मित्रता में (मा) मत (रिषाम) हिंसित होवें ॥४॥ स्तोत्र को रथ के समान सत्कारपूर्वक भेजें—यहाँ पूर्णोपमा अलङ्कार है। जैसे किसी सुयोग्य विद्वान् को अपने उत्सवों में लाने के लिए उसके निमित्त रथ भेजा जाता है, वैसे ही पूज्य परमेश्वर को अपने हृदय-गृह में लाने के लिए उसके निमित्त स्तोत्र भेजा जाए। यह भाषा आलङ्कारिक समझनी चाहिए क्योंकि परमेश्वर तो पहले से ही हमारे हृदयों में विद्यमान है ॥४॥
अव्यक्तरूप से हृदय में स्थित परमेश्वर हमारे स्तोत्र से जाग जाता है और हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चलनेवाली भद्र बनाकर विनाश से हमारी रक्षा करता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्य स्तुत्या तत्संगत्या च वयं कि लभेमहीत्याह।
(अर्हते) पूज्याय। अर्ह पूजायाम्, शतृप्रत्ययः। (जातवेदसे२) यो जातानि वेत्ति, जाते-जाते विद्यते, जातं वेदो धनं वेदज्ञानं वा यस्मात् तस्मै परमेश्वराय (मनीषया) मनोयोगेन (इमम्) अस्माकं हृदये विद्यमानम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (संमहेम३) सत्कारपूर्वकं प्रापयेम। अत्र संपूर्वो मह पूजायामिति धातुर्बोध्यः। (रथम् इव) यथा कश्चित् पूज्यजनं समाह्वातुं तदन्तिके रथं प्रापयति तथा। (अस्य) परमात्मनः (संसदि) संगतौ (नः) अस्माकम् (प्रमतिः) प्रखरा मतिः (भद्रा हि) भद्रैव भवतु। हे (अग्ने) तेजोमय परमात्मन् ! (वयम्) प्रजाजनाः (तव) त्वदीये (सख्ये) मैत्रीभावे (मा) नैव (रिषाम) हिंसिता भवेम। रिष हिंसायाम् इति धातोः लेटि रूपम्। संमहेमा, रिषामा इत्युभयत्र अन्येषामपि दृश्यते।’ अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः ॥४॥४ स्तोमं रथमिव संमहेम इत्यत्र पूर्णोपमालङ्कारः। यथा कञ्चित् सुयोग्यं विद्वांसं स्वोत्सवेषु समानेतुं तस्मै रथः प्रेष्यते, तथा पूज्यं परमेश्वरं स्वहृदयसदने समानेतुं तस्मै स्तोमः प्रेष्येत। आलङ्कारिकीयं भाषा वेद्या, पूर्वमेव परमेश्वरस्यास्माकं हृदये विद्यमानत्वात् ॥४॥
अव्यक्तरूपेण हृदये स्थितः परमेश्वरोऽस्माकं स्तोमेन जागर्ति, बुद्धिं चास्माकं सन्मार्गगामिनीं भद्रां विधाय विनाशादस्मान् रक्षति ॥४॥