यो꣢꣯ मꣳहि꣢꣯ष्ठो मघोनामꣳशुर्न शोचिः । चि꣡कि꣢त्वो अ꣣भि꣡ नो꣢ न꣣ये꣡न्द्रो꣢ विदे꣢꣯ तमु꣢꣯ स्तुहि ॥६४५
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यो मꣳहिष्ठो मघोनामꣳशुर्न शोचिः । चिकित्वो अभि नो नयेन्द्रो विदे तमु स्तुहि ॥६४५
यः꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठः । म꣣घो꣡ना꣢म् । अँ꣣शुः꣢ । न । शो꣣चिः꣢ । चि꣡कि꣢꣯त्वः । अ꣣भि꣢ । नः꣣ । नय । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वि꣣दे꣢ । तम् । उ꣣ । स्तुहि ॥६४५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा का वर्णन करके उसकी स्तुति के लिए मनुष्यों को प्रेरणा दी गयी है।
(यः) जो आप (मघोनाम्) धनियों में (मंहिष्ठः) सबसे अधिक दानी हैं और (अंशुः न) सूर्यकिरण के समान (शोचिः) तेजस्वी हैं, वह, हे (चिकित्वन्) ज्ञानी, जागरूक परमात्मन् ! आप (नः अभि) हमारी ओर भी (नय) इन दान, तेज, ज्ञान, जागरूकता आदि को लाइए। हे मनुष्य ! (इन्द्रः) परमेश्वर (विदे) उपकार करना जानता है, (तम् उ) उसी को (स्तुहि) स्तुति से सम्मानित कर ॥५॥ इस मन्त्र में ‘अंशुः न शोचिः’ में उपमालङ्कार है ॥५॥
जो जगदीश्वर परम दानी, परम तेजस्वी, परम विद्वान्, परम जागरूक और परम परोपकारी है, उसकी उपासना करके सबको दानी, तेजस्वी, विद्वान्, जागरूक और परोपकारी बनना चाहिए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानमुपवर्ण्य तत्स्तवनाय जनान् प्रेरयति।
(यः) यस्त्वम्, (मघोनाम्) धनवताम् (मंहिष्ठः) दातृतमः असि, किञ्च (अंशुः न) सूर्यरश्मिः इव (शोचिः) शोचिष्मान् असि, सः हे (चिकित्वः) ज्ञानवन्, सदा जागरूक परमात्मन् ! त्वम् (नः अभि) अस्मान् प्रति (नय) दातृत्वतेजोज्ञानजागरूकत्वादिकं प्रापय। हे मनुष्य ! (इन्द्रः) परमेश्वरः (विदे) उपकर्तुं जानाति, (तम् उ) तमेव (स्तुहि) स्तुत्या सभाजय ॥ (शोचिः) अत्र मत्वर्थीयस्य लोपः। (चिकित्वः) कित ज्ञाने, लिटः क्वसुः सम्बुद्धौ ‘मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि’ अ० ८।३।१ इति रुत्वम्। (विदे) विद ज्ञाने, आत्मनेपदं छान्दसम्, ‘वित्ते’ इति प्राप्ते ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु’ अ० ७।१।४१ इति तलोपः ॥५॥ अत्र ‘अंशुर्न शोचिः’ इत्युपमालङ्कारः ॥५॥
यो जगदीश्वरः परमो दाता, परमस्तेजस्वी, परमो विद्वान्, परमो जागरूकः, परमः परोपकर्ता च विद्यते तमुपास्य सर्वैर्दातृभिस्तेजस्विभिर्विद्भिर्जागरूकैः परोपकर्तृभिश्च भाव्यम् ॥५॥