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स꣣प्त꣡ त्वा꣢ ह꣣रि꣢तो꣣ र꣢थे꣣ व꣡ह꣢न्ति देव सूर्य । शो꣣चि꣡ष्के꣢शं विचक्षण ॥६४०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य । शोचिष्केशं विचक्षण ॥६४०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स꣣प्त꣢ । त्वा꣣ । हरि꣡तः꣢ । र꣡थे꣢꣯ । व꣡ह꣢꣯न्ति । दे꣣व । सूर्य । शोचि꣡ष्केश꣢म् । शो꣣चिः꣢ । के꣣शम् । विचक्षण । वि । चक्षण ॥६४०॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 640 | (कौथोम) 6 » 3 » 5 » 14 | (रानायाणीय) 6 » 5 » 14


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः सूर्य, जीवात्मा और परमात्मा का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (देव) दिव्यशक्ति-सम्पन्न, (विचक्षण) विविध ज्ञानों से युक्त (सूर्य) शरीररथ को भली-भाँति चलानेवाले जीवात्मन् ! (शोचिष्केशम्) तेजरूप केशोंवाले (त्वा) तुझे (सप्त हरितः) मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रिय रूप सात घोड़े (रथे) शरीररूप रथ में (वहन्ति) वहन करते हैं ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। हे (देव) दानादिगुण-युक्त, दिव्यगुण-कर्म-स्वभाव, (विचक्षण) सर्वद्रष्टा, (सूर्य) शुभ मार्ग में भली-भाँति प्रेरित करनेवाले परमात्मन् ! (शोचिष्केशम्) ज्ञानरश्मिरूप केशोंवाले (त्वा) तुझ परम पुरुष को (सप्त हरितः) गायत्री आदि सात छन्दों से युक्त सात प्रकार की वेदवाणियाँ (रथे) उपासक के रमणीय हृदय में (वहन्ति) पहुँचाती हैं ॥ भौतिक सूर्य भी (देवः) प्रकाशमान तथा प्रकाशक, (विचक्षणः) विविध पदार्थों का दर्शन करानेवाला और (शोचिष्केशः) किरणरूप केशोंवाला है। उसे (सप्त) सात (हरितः) दिशाएँ (रथे) आकाशरूप रथ में बैठाकर (वहन्ति) यात्रा कराती हैं ॥ यहाँ सूर्य का शिशु होना तथा दिशाओं का माता होना ध्वनित हो रहा है। जैसे माताएँ शिशु को बच्चागाड़ी में बैठाकर सैर कराती हैं, वैसे ही दिशाएँ सूर्य को आकाश-रथ में बैठाकर घुमाती हैं ॥ दिशाएँ चार, पाँच, छः, सात, आठ, दस आदि विभिन्न संख्यावाली सुनी जाती हैं। ‘सात दिशाएँ हैं, नाना सूर्य हैं’ (ऋ० ९।११४।३) इस श्रुति के अनुसार दिशाओं की सात संख्या भी प्रमाणित होती है। चार पूर्व आदि हैं, अधः, ऊर्ध्वा मिलकर छह होती हैं और सातवीं मध्य दिशा है। इस प्रकार सात संख्या पूरी होती है ॥१४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। शोचियों में केशों का आरोप शाब्द तथा सूर्य में पुरुष का आरोप आर्थ होने से एकदेशविवर्ती रूपक भी है ॥१४॥

भावार्थभाषाः -

जैसे किसी प्रतापी पुरुष को सात घोड़े रथ में वहन करें, वैसे ही किरण-रूप केशोंवाले सूर्य-रूप पुरुष को दिशाएँ आकाश-रथ में तथा तेज-रूप केशोंवाले जीवात्मा-रूप पुरुष को इन्द्रियरूप घोड़े शरीर-रथ में और ज्ञान-रूप केशोंवाले परमात्मा-रूप पुरुष को वेदों के सात छन्द उपासक के हृदय-रथ में वहन करते हैं ॥१४॥ इस दशति में अग्नि नामक परमेश्वर से पवित्रता, दुःख-विनाश आदि की प्रार्थना होने से और सूर्य नाम से भौतिक सूर्य, जीवात्मा एवं परमात्मा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीय अर्ध की पञ्चम दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥ यह षष्ठ प्रपाठक और षष्ठ अध्याय समाप्त हुआ ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि सूर्यो जीवात्मा परमात्मा च वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—जीवात्मपक्षे। हे (देव) दिव्यशक्तिसम्पन्न (विचक्षण) विविधज्ञानयुक्त (सूर्य) शरीररथस्य सुष्ठु ईरयितः जीवात्मन् ! (शोचिष्केशम्) तेजोरूपकेशयुक्तम् (त्वा) त्वाम् (सप्त हरितः) मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियरूपाः सप्त अश्वाः (रथे) शरीररूपे स्यन्दने (वहन्ति) धारयन्ति ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपक्षे। हे (देव) दानादिगुणयुक्त दिव्यगुणकर्मस्वभाव (विचक्षण) सर्वद्रष्टः (सूर्य) शुभमार्गे सुष्ठु प्रेरयितः परमात्मन् ! (शोचिष्केशम्) शोचींषि ज्ञानरश्मयः एव केशाः केशस्थानीया यस्य तम् (त्वा) त्वाम् परमपुरुषम् (सप्त हरितः) गायत्र्यादिसप्तछन्दोयुक्ताः सप्तविधा वेदवाचः (रथे) उपासकस्य रमणीये हृदये। रमु क्रीडायाम्, ‘हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्। उ० २।२’ इति क्थन्। (वहन्ति) प्रापयन्ति ॥ भौतिकः सूर्योऽपि (देवः) द्युतिमान् द्योतयिता च, (विचक्षणः) विविधानां पदार्थानां दर्शयिता, (शोचिष्केशः) शोचींषि रश्मय एव केशा यस्य तादृशः अस्ति। तं च (सप्त) सप्तसंख्यकाः (हरितः) दिशः। हरितः इति दिङ्नाम। निघं० १।६। (रथे) आकाशरूपे स्यन्दने(वहन्ति) नयन्ति ॥२ अत्र सूर्यस्य शिशुत्वं व्यज्यते दिशां च मातृत्वम्। यथा मातरः शिशुं लघुरथे समुपवेश्य पर्यटनं कारयन्ति, तथैव दिशः सूर्यं गगनरथे समारोप्य पर्यटनं कारयन्ति ॥ दिशश्चतस्रः पञ्च षट् सप्ताष्टौ दशेति विभिन्नसंख्याः श्रूयन्ते। ‘सप्तदिशो नाना सूर्याः’। ऋग्० ९।११४।३ इति श्रुतेः दिशां सप्तसंख्यत्वमपि प्रमाणीभवति। चतस्रः पूर्वाद्याः, अधः ऊर्ध्वा चेति षट्, सप्तमी मध्यभूता ॥१४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। शोचिष्षु केशानामारोपः शाब्दः, सूर्ये च पुरुषारोपः आर्थः, तस्मादेकदेशविवर्ति रूपकम् ॥१४॥

भावार्थभाषाः -

यथा कञ्चित् प्रतापिनं पुरुषं सप्त अश्वा रथे वहेयुस्तथा रश्मिकेशं सूर्यं पुरुषं दिशो गगनरथे, तेजःकेशं जीवात्मपुरुषम् इन्द्रियाश्वाः शरीरथे, ज्ञानकेशं परमात्मपुरुषं च सप्तच्छन्दांसि योगिनो हृदयरथे वहन्ति ॥१४॥ अत्राग्न्याख्यात् परमेश्वरात् पावित्र्यदुःखविनाशादिप्रार्थनात्, सूर्यनाम्ना च भौतिकसूर्यजीवात्मपरमात्मनां वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥१४॥ इति षष्ठे प्रपाठके तृतीयार्धे पञ्चमी दशतिः ॥ इति षष्ठाध्याये पञ्चमः खण्डः ॥ समाप्तश्चायं षष्ठः प्रपाठकः षष्ठाध्यायश्च ॥ इति बरेलीमण्डलान्तर्गतफरीदपुरवास्तव्यश्रीमद्गोपालरामभगवती- देवीतनयेन हरिद्वारीयगुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालयेऽधीतविद्येन विद्यामार्तण्डेन आचार्यरामनाथवेदालङ्कारेण महर्षिदयानन्द- सरस्वतीस्वामिकृतवेदभाष्यशैलीमनुसृत्य विरचिते संस्कृतार्य-भाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सामवेदभाष्ये आरण्यकंकाण्डं पर्व वा पूर्वार्चिकश्च समाप्तिमगात् ॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।५०।८, अथ० १३।२।२३ ऋषिः ब्रह्मा, देवता रोहित आदित्यः, अथ० २०।४७।२०। अथर्ववेदे उभयत्र ‘विचक्षणम्’ इति पाठः। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये वाचकलुप्तोपमालङ्कारमाश्रित्य “हे मनुष्याः ! यथा किरणैर्विना सूर्यस्य दर्शनं न भवति तथैव वेदाभ्यासमन्तरा परमात्मनो दर्शनं नैव जायत इति वेद्यम्” इति विषये व्याख्यातवान्।