अ꣣न्त꣡श्च꣢रति रोच꣣ना꣢꣫स्य प्रा꣣णा꣡द꣢पान꣣ती꣢ । व्य꣢꣯ख्यन्महि꣣षो꣡ दिव꣢꣯म् ॥६३१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती । व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥६३१॥
अ꣣न्त꣡रिति꣢ । च꣣रति । रोचना꣢ । अ꣣स्य꣢ । प्रा꣣णा꣢त् । प्र꣣ । आना꣢त् । अ꣣पानती꣢ । अ꣣प । अनती꣢ । वि । अ꣣ख्यत् । महिषः꣢ । दि꣡व꣢꣯म् ॥६३१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सूर्य और परमात्मा के तेज का वर्णन है।
(अस्य) इस सूर्य वा परमात्मा की (रोचना) दीप्ति (प्राणात्) प्राण-व्यापार के पश्चात् (अपानती) अपान व्यापार कराती हुई (अन्तः) भूमि पर वा हृदय के अन्दर (चरति) विचरती है। यह (महिषः) महान् सूर्य वा परमात्मा (दिवम्) आकाश को वा जीवात्मा को (व्यख्यत्) प्रकाशित करता है ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥५॥
जो यह प्राण प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान रूप से शरीर में स्थित हुआ प्राणन, अपानन आदि व्यापार करता है, वह परमेश्वर की ही महिमा से करता है, जैसाकि उपनिषद् के ऋषि ने कहा है—‘परमेश्वर प्राण का भी प्राण है (केन० १।२)। परमेश्वर से रचित सूर्य भी अपनी किरणों से प्राणियों को प्राण प्रदान करता हुआ प्राणापान आदि क्रियाओं में सहायक होता है, जैसाकि प्रश्नोपनिषद् में कहा है—‘यह सूर्य प्रजाओं का प्राण होकर उदित हो रहा है।’ (प्रश्न० १।८) परमेश्वर ही सूर्य के द्वारा आकाशस्थ पिण्डों को भी प्रकाशित करता है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सूर्यस्य परमात्मनश्च तेजो वर्णयति।
(अस्य) एतस्य गोः सूर्यस्य परमात्मनो वा (रोचना) दीप्तिः (प्राणात्) प्राणनव्यापारानन्तरम् (अपानती) अपाननव्यापारं कारयन्ती (अन्तः) भुवो हृदयस्य चाभ्यन्तरे (चरति) विचरति। एष (महिषः) महान् सूर्यः परमेश्वरो वा। महिष इति महन्नाम। निघं० ३।३। (दिवम्) आकाशं जीवात्मानं वा (व्यख्यत्) प्रकाशयति ॥५॥२ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥५॥
योऽयं प्राणः प्राणापानव्यानसमानोदानरूपेण देहेऽवस्थितः प्राणनापाननादिव्यापारं कुरुते तत्परमेश्वरमहिम्नैव, ‘स उ प्राणस्य प्राणः’ (केन० १।२) इति वचनात्। अपि च तद्विरचितः सूर्योऽपि स्वरश्मिभिः प्राणिभ्यः प्राणं प्रयच्छन् प्राणापानादिक्रियासु सहायको भवति, ‘प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः’ (प्रश्न० १।८) इत्यादि स्मरणात्। परमेश्वर एव सूर्यद्वारेणाकाशस्थानि पिण्डान्यपि प्रकाशयति ॥५॥