वि꣣भ्रा꣢ड्बृ꣣ह꣡त्पि꣢बतु सो꣣म्यं꣢꣫ मध्वायु꣣र्द꣡ध꣢द्य꣣ज्ञ꣡प꣢ता꣣व꣡वि꣢ह्रुतम् । वा꣡त꣢꣯जूतो꣣ यो꣡ अ꣢भि꣣र꣡क्ष꣢ति꣣ त्म꣡ना꣢ प्र꣣जाः꣡ पि꣢पर्ति ब꣣हुधा꣡ वि रा꣢꣯जति ॥६२८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)विभ्राड्बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् । वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पिपर्ति बहुधा वि राजति ॥६२८॥
वि꣣भ्रा꣢ट् । वि꣣ । भ्रा꣢ट् । बृ꣣ह꣢त् । पि꣣बतु । सोम्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । आ꣡युः꣢꣯ । द꣡ध꣢꣯त् । य꣣ज्ञ꣡प꣢तौ । य꣣ज्ञ꣢ । प꣣तौ । अ꣡वि꣢꣯ह्रुतम् । अ꣡वि꣢꣯ । ह्रु꣣तम् । वा꣡त꣢꣯जूतः । वा꣡त꣢꣯ । जू꣣तः । यः꣢ । अ꣣भिर꣡क्ष꣢ति । अ꣣भि । र꣡क्ष꣢꣯ति । त्म꣡ना꣢꣯ । प्र꣣जाः꣢ । प्र । जाः꣢ । पि꣣पर्त्ति । बहुधा꣢ । वि । रा꣣जति ॥६२८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे इस दशति में सब ऋचाओं का सूर्य देवता है। इस ऋचा में सूर्य के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन किया गया है।
(विभ्राट्) सूर्य के समान तेजस्वी परमात्मा (बृहत्) महान्, (सोम्यम्) ज्ञान एवं कर्म रूप सोम से युक्त (मधु) मधुर भक्तिरस को (पिबतु) पान करे और वह (यज्ञपतौ) यजमान को (अविह्रुतम्) अकुटिल (आयुः) जीवन (दधत्) प्रदान करे, (वातजूतः) प्राणायाम से प्रेरित (यः) जो परमात्मा (त्मना) स्वयम् (प्रजाः) प्रजाओं की (अभिरक्षति) रक्षा करता है तथा (पिपर्ति) उन्हें शक्ति से पूर्ण करता है और (बहुधा) सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान् आदि अनेक रूपों में (विराजति) विशेष रूप से शोभित होता है। यहाँ श्लेष से सूर्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥२॥
जैसे तेजस्वी सूर्य समुद्र आदि के जल का पान करता है, वैसे तेजस्वी परमेश्वर भक्तजनों के भक्तिरस का पान करता है। जैसे सूर्य दीर्घायुष्य प्रदान करता है, वैसे परमेश्वर अकुटिल जीवन प्रदान करता है। जैसे अपने अन्दर विद्यमान घनीभूत हवाओं से गतिमान् हुआ सूर्य मनुष्यों की रक्षा करता है, वैसे योगियों के प्राणायाम के अभ्यासों द्वारा हृदय में प्रेरित परमेश्वर उन योगीजनों की रक्षा करता है। जैसे सूर्य प्रजाओं का पालन करता है और प्रतिमास विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, वैसे परमेश्वर प्रजाजनों का पालन करता तथा उन्हें पूर्ण बनाता है और अनेक रूपों में उपासकों के हृदय में प्रकाशित होता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथाग्रे सर्वासां सूर्यो देवता। सूर्यदृष्टान्तेन परमात्मानं वर्णयति।
(विभ्राट्) सूर्यवद् विभ्राजमानः परमात्मा (बृहत्) महत् (सोम्यम्) ज्ञानकर्मरूपेण सोमेन युक्तम्। अत्र सोमशब्दात् ‘मये च। अ० ४।४।१३८’ इति मयडर्थे यः प्रत्ययः। (मधु) मधुरं भक्तिरसम् (पिबतु) आस्वादयतु, किञ्च सः (यज्ञपतौ) यजमाने (अविह्रुतम्) अकुटिलम्। ह्वृ कौटिल्ये, ‘ह्रु ह्वरेश्छन्दसि। अ० ७।२।३१’ इति धातोः ह्रुः आदेशः। (आयुः) जीवनम् (दधत्) स्थापयन्, भवत्विति शेषः, (वातजूतः) वातेन प्राणायामेन जूतः प्रेरितः (यः) परमात्मा (त्मना) आत्मना। ‘मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। अ० ६।४।१४१’ इत्याकारलोपः। (प्रजाः) जनान् (अभिरक्षति) परित्रायते, (पिपर्ति) शक्त्या पूरयति, (बहुधा) बहुप्रकारेण सच्चिदानन्द-स्वरूप-निराकार-सर्वशक्तिमद्-दयाल्वादिरूपेण (विराजति) विशेषेण शोभते च। अत्र श्लेषेण सूर्यपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः ॥२॥२
यथा भ्राजमानः सूर्यः समुद्रादीनां सलिलं पिबति तथा विभ्राजमानः परमेश्वरः भक्तजनानां भक्तिरसं पिबति। यथा सूर्यो दीर्घायुष्यं प्रयच्छति तथा परमेश्वरोऽकुटिलं जीवनं प्रयच्छति। यथा स्वाभ्यन्तरे विद्यमानैर्घनीभूतैर्वायुभिर्गतिमयः सूर्यो जनानभिरक्षति, तथा योगिनां प्राणायामाभ्यासैर्हृदये प्रेरितः परमेश्वरस्तान् रक्षति। यथा सूर्यः प्रजाः पालयति प्रतिमासं विभिन्नरूपैश्च प्रकटीभवति तथा परमेश्वरो जनान् पालयति पूरयति वा, बहुभी रूपैश्चोपासकानां हृदि प्रकाशते ॥२॥