त्व꣡म꣢ग्ने गृ꣣ह꣡प꣢ति꣣स्त्व꣡ꣳ होता꣢꣯ नो अध्व꣣रे꣢ । त्वं꣡ पोता꣢꣯ विश्ववार꣣ प्र꣡चे꣢ता꣣ य꣢क्षि꣣ या꣡सि꣢ च꣣ वा꣡र्य꣢म् ॥६१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वमग्ने गृहपतिस्त्वꣳ होता नो अध्वरे । त्वं पोता विश्ववार प्रचेता यक्षि यासि च वार्यम् ॥६१॥
त्व꣢म् । अ꣣ग्ने । गृह꣡प꣢तिः । गृ꣣ह꣢ । प꣣तिः । त्व꣢म् । हो꣡ता꣢꣯ । नः꣢ । अध्वरे꣢ । त्वम् । पो꣡ता꣢꣯ । वि꣣श्ववार । विश्व । वार । प्र꣡चे꣢꣯ताः । प्र । चे꣣ताः । य꣡क्षि꣢꣯ । या꣡सि꣢꣯ । च꣣ । वा꣡र्य꣢꣯म् ॥६१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमेश्वर किस गुण-कर्म-स्वभाववाला है, यह कहते हैं।
हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान, सबके अग्रनेता परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वर आप (गृहपतिः) ब्रह्माण्ड रूप गृह के स्वामी और पालक हो। (त्वम्) आप (नः) हमारे (अध्वरे) हिसांदिदोषरहित जीवनयज्ञ में (होता) सुख आदि के दाता हो। हे (विश्ववार) सबसे वरणीय ! (प्रचेताः) प्रकृष्ट चित्तवाले (त्वम्) आप (पोता) सांसारिक पदार्थों के अथवा भक्तों के चित्तों के शोधक हो। आप (वार्यम्) वरणीय सब वस्तुएँ (यक्षि) प्रदान करते हो, (यासि च) और उनमें व्याप्त होते हो ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेष से यज्ञाग्नि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥७॥
जैसे यज्ञाग्नि यजमान के घर का रक्षक होता है, वैसे परमेश्वर ब्रह्माण्डरूप घर का रक्षक है। जैसे यज्ञाग्नि अग्निहोत्र में स्वास्थ्य का प्रदाता होता है, वैसे परमेश्वर जीवन-यज्ञ में सुख-सम्पत्ति आदि का प्रदाता होता है। जैसे यज्ञाग्नि वायुमण्डल का शोधक होता है, वैसे परमेश्वर सूर्य आदि के द्वारा सांसारिक पदार्थों का और दिव्यगुणों के प्रदान द्वारा भक्तों के चित्तों का शोधक होता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरः किंगुणकर्मस्वभावोऽस्तीत्याह।
हे (अग्ने) अग्निवत् प्रकाशमान सर्वाग्रणीः परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वरः (गृहपतिः) ब्रह्माण्डरूपस्य गृहस्य स्वामी पालकश्च असि। (त्वम् नः) अस्माकम् (अध्वरे) हिंसादिदोषरहिते जीवनयज्ञे (होता) सुखादीनां दाता भवसि। हे (विश्ववार) विश्वैर्वरणीय ! (प्रचेताः२) प्रकृष्टचित्तः (त्वम् पोता३) सांसारिकपदार्थानां भक्तचित्तानां वा शोधकः असि। पूञ् पवने धातोः कर्तरि तृन्। त्वम् (वार्यम्) वरणीयं सर्वं वस्तुजातम् (यक्षि) ददासि। यक्षि यजसि। बहुलं छन्दसि।’ अ० २।४।७३। इति शपो लुक्। (यासि च) व्याप्नोषि च ॥७॥४ श्लेषेण यज्ञाग्निपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः ॥७॥
यथा यज्ञाग्निर्यजमानगृहस्य रक्षिता तथा परमेश्वरो ब्रह्माण्डगृहस्य रक्षकः। यथा यज्ञाग्निरग्निहोत्रे स्वास्थ्यस्य प्रदाता, तथा परमेश्वरो जीवनयज्ञे सुखसम्पदादेः प्रदाता। यथा यज्ञाग्निर्वायुमण्डलस्य शोधकः, तथा परमेश्वरः सूर्यादिद्वारा सांसारिकपदार्थानां दिव्यगुण- प्रदानद्वारा च भक्तचित्तानां शोधकः ॥७॥