अ꣣भि꣢ द्यु꣣म्नं꣢ बृ꣣ह꣢꣫द्यश꣣ इ꣡ष꣢स्पते दिदी꣣हि꣡ दे꣢व देव꣣यु꣢म् । वि꣡ कोशं꣢꣯ मध्य꣣मं꣡ यु꣢व ॥५७९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि द्युम्नं बृहद्यश इषस्पते दिदीहि देव देवयुम् । वि कोशं मध्यमं युव ॥५७९॥
अ꣣भि꣢ । द्यु꣣म्न꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । य꣡शः꣢꣯ । इ꣡षः꣢꣯ । प꣣ते । दिदीहि꣢ । दे꣣व । देवयु꣢म् । वि । को꣡श꣢꣯म् । म꣣ध्यम꣢म् । यु꣣व ॥५७९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।
हे (इषः पते) अन्न, रस, धन, बल, विज्ञान आदि के स्वामी सोम परमात्मन् ! आप (द्युम्नम्) तेज को और (बृहद् यशः) महान् यश को (अभि) हमें प्राप्त कराइये। हे (देव) दान करने, चमकने, चमकाने आदि दिव्य कर्मों से युक्त भगवन् ! आप (देवयुम्) दिव्य गुणों के अभिलाषी मुझे (दिदीहि) दिव्य गुणों से प्रकाशित कर दीजिए। मेरे (मध्यमम्) मध्यम (कोशम्) कोश को, अर्थात् मध्यस्थ मनोमय कोश को (वि युव) खोल दीजिए, जिससे उपरले विज्ञानमय तथा आनन्दमय कोश में पहुँच सकूँ ॥२॥
जैसे मेघरूप मध्यम कोश के खुलने से ही ऊपर का सूर्यप्रकाश प्राप्त हो सकता है, वैसे ही कोशों में मध्यस्थ मनोमय कोश के खुलने से ही विज्ञानमय और आनन्दमय कोश की विपुल समृद्धि प्राप्त की जा सकती है, अन्यथा योग का साधक मनोमय भूमिका में ही रमता रहता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे (इषः पते) अन्नरसधनबलविज्ञानादीनाम् अधिपते सोम परमात्मन् ! त्वम् (द्युम्नम्) तेजः। द्युम्नं द्योततेः। निरु० ५।५। (बृहद् यशः) महतीं कीर्तिं च (अभि) अस्मान् अभिप्रापय। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। हे (देव) दानदीपनद्योतनादिदिव्यकर्मन् भगवन् ! त्वम् (देवयुम्) दिव्यगुणान् कामयमानं माम्। देवान् आत्मनः कामयते इति देवयुः। क्यचि ‘क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७०’ इति उ प्रत्ययः। (दिदीहि) दिव्यगुणैः प्रकाशय। दीदयतिः ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६। किञ्च, (मध्यमम्) मध्यस्थम् (कोशम्) मनोमयरूपम् (वि युव) वियोजय, समुद्घाटय। येन तत उपरितनं विज्ञानमयमानन्दमयं च कोशमारोढुं प्रभवेयम् ॥२॥
यथा मेघरूपस्य मध्यमकोशस्यापावरणेनैव ऊर्ध्वस्थः सूर्यप्रकाशः प्राप्तुं शक्यते, तथैव मध्यस्थस्य मनोमयकोशस्यापावृत्त्यैव विज्ञानमयस्याऽऽनन्दमयस्य च कोशस्य विपुला समृद्धिरधिगन्तुं पार्यते, अन्यथा योगसाधको मनोमयभूमिकास्वेव रममाणस्तिष्ठति ॥२॥