प꣡व꣢स्व꣣ म꣡धु꣢मत्तम꣣ इ꣡न्द्रा꣢य सोम क्रतु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ । म꣡हि꣢ द्यु꣣क्ष꣡त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ ॥५७८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमो मदः । महि द्युक्षतमो मदः ॥५७८॥
प꣡व꣢꣯स्व । म꣡धु꣢꣯मत्तमः । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । क्रतुवि꣡त्त꣢मः । क्र꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯मः । म꣡दः꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । द्यु꣣क्ष꣡त꣢मः । द्यु꣣क्ष꣡ । तमः꣢꣯ । म꣡दः꣢꣯ ॥५७८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् ! (मधुमत्तमः) सबसे अधिक मधुर, (क्रतुवित्तमः) सबसे अधिक प्रज्ञा और कर्म को प्राप्त करानेवाले, और (मदः) हर्षप्रदाता आप (इन्द्राय) मेरे आत्मा के लिए (पवस्व) आनन्द-रस को प्रवाहित कीजिए। (मदः) आपसे दिया हुआ आनन्द (महि) अत्यधिक (द्युक्षतमः) तेज का निवास करानेवाला होता है ॥१॥ इस मन्त्र में ‘तमो मदः’ की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है। ‘तम, तमो, तमो’ में वृत्त्यनुप्रास है ॥१॥
अत्यन्त मधुर, ज्ञान तथा कर्म के उपदेशक, आनन्ददाता परमात्मा का ध्यान कर-करके योगीजन अपार आनन्दरस से परिपूर्ण हो जाते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्राद्ये मन्त्रे सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् ! (मधुमत्तमः) अतिशयेन मधुरः, (क्रतुवित्तमः) अतिशयेन कर्मणः प्रज्ञायाश्च लम्भकः (मदः) हर्षकरश्च त्वम् (इन्द्राय) मदीयाय आत्मने (पवस्व) प्रस्रव, आनन्दरसं प्रवाहय। (मदः) त्वज्जनितः आनन्दः (महि) अत्यर्थम्। महि यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणमेतत्। (द्युक्षतमः) अतिशयेन तेजसो निवासकः भवति। द्यां दीप्तिं क्षाययति निवासयतीति द्युक्षः, अतिशयेन द्युक्षः द्युक्षतमः ॥१॥ ‘तमो मदः’ इत्यस्यावृत्तौ यमकालङ्कारः। ‘तम, तमो, तमो’ इत्यत्र च वृत्त्यनुप्रासः ॥१॥
मधुरमधुरं ज्ञानकर्मोपदेष्टारमानन्दप्रदं परमात्मानं ध्यायं ध्यायं योगिनो निरतिशयानन्दरसनिर्भरा जायन्ते ॥१॥