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प꣢रि꣣ को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣢त꣣ꣳ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति । अ꣣भि꣢꣫ वाणी꣣रृ꣡षी꣢णाꣳ स꣣प्ता꣡ नू꣢षत ॥५७७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

परि कोशं मधुश्चुतꣳ सोमः पुनानो अर्षति । अभि वाणीरृषीणाꣳ सप्ता नूषत ॥५७७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् । सो꣡मः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । अ꣣र्षति । अभि꣢ । वा꣡णीः꣢꣯ । ऋ꣡षी꣢꣯णाम् । स꣣प्त । नू꣢षत ॥५७७॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 577 | (कौथोम) 6 » 2 » 3 » 12 | (रानायाणीय) 5 » 10 » 12


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा से आनेवाले आनन्दरस का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पुनानः) अन्तःकरण को पवित्र करता हुआ परमेश्वर अथवा ब्रह्मानन्दरस (मधुश्चुतम्) मधुर श्रद्धारस को प्रस्रुत करनेवाले (कोशम्) मनोमय कोश में (परि अर्षति) व्याप्त हो रहा है। उस परमेश्वर वा ब्रह्मानन्दरस की (ऋषीणां सप्त वाणीः) वेदों की आर्षेय गायत्री आदि सात छन्दोंवाली ऋचाएँ (अभि नूषत) सोम नाम से स्तुति करती हैं ॥ चौबीस अक्षरों से आरम्भ करके क्रमशः चार-चार अक्षरों की वृद्धि करके गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप्, जगती नामक सात छन्द ऋषि-छन्द कहाते हैं। वे ही यहाँ ‘ऋषीणां सप्त वाणीः’ शब्दों से ग्राह्य हैं ॥१२॥

भावार्थभाषाः -

परब्रह्म और ब्रह्मानन्द रस की महिमा को गानेवाली वेदवाणियों के साथ अपना मन मिलाकर ब्रह्म के उपासक जन अपने हृदय में ब्रह्मानन्द रस के प्रवाह का अनुभव करें ॥१२॥ इस दशति में सोम परमात्मा के प्रति सामगान की प्रेरणा होने से तथा परमात्मा और उसके आनन्दरस की महिमा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय से संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक, द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय का दशम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मनः सकाशादागच्छन्तमानन्दरसं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पुनानः) अन्तःकरणस्य पवित्रतां सम्पादयन् (सोमः) प्रेरकः परमेश्वरः ब्रह्मानन्दरसो वा (मधुश्चुतम्) मधुरश्रद्धारसस्राविणम् (कोशम्) मनोमयकोशम् (परि अर्षति) परिगच्छति। तं परमेश्वरं ब्रह्मानन्दरसं वा (ऋषीणां सप्त वाणीः) वेदानाम् आर्षेयगायत्र्यादिसप्तच्छन्दोमय्यः ऋचः। संहितायां ‘सप्ता’ इति छान्दसो दीर्घः। (अभि नूषत) सोमनाम्ना अभिष्टुवन्ति। णू स्तवने धातोर्लडर्थे लङि छान्दसं रूपम्। अडागमाभावः ॥ चतुर्विंशत्यक्षरेभ्य आरभ्य क्रमेण चतुश्चतुर्वृद्ध्या सम्पद्यमानानि गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपङ्क्तित्रिष्टुब्जगत्याख्यानि सप्त च्छन्दासिं ऋषीणां छन्दांस्युच्यन्ते। तान्येवात्र ‘ऋषीणां सप्त वाणीः’ इत्यनेन गृह्यन्ते ॥१२॥

भावार्थभाषाः -

परब्रह्मणो ब्रह्मानन्दरसस्य च महिमानं गायन्तीभिर्वेदवाग्भिः संमनसो भूत्वा ब्रह्मोपासकाः स्वहृदये ब्रह्मानन्दरसस्य प्रवाहमनुभवेयुः ॥१२॥ अत्र सोमं परमात्मानं प्रति सामानि गातुं प्रेरणात् परमात्मनस्तदानन्दरसस्य च महिमवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति षष्ठे प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये दशमः खण्डः ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०३।३ ‘मधुश्चुतमव्यये वारे अर्षति’, ‘सप्त नूषत’ इति पाठः।