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गो꣡म꣢न्न इन्दो꣣ अ꣡श्व꣢वत्सु꣣तः꣡ सु꣢दक्ष धनिव । शु꣡चिं꣢ च꣣ व꣢र्ण꣣म꣢धि꣣ गो꣡षु꣢ धारय ॥५७४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

गोमन्न इन्दो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धनिव । शुचिं च वर्णमधि गोषु धारय ॥५७४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गो꣡म꣢꣯त् । नः꣣ । इन्दो । अ꣡श्व꣢꣯वत् । सु꣣तः꣢ । सु꣣दक्ष । सु । दक्ष । धनिव । शु꣡चि꣢꣯म् । च꣣ । व꣡र्ण꣢꣯म् । अ꣡धि꣢꣯ । गो꣡षु꣢꣯ । धा꣣रय ॥५७४॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 574 | (कौथोम) 6 » 2 » 3 » 9 | (रानायाणीय) 5 » 10 » 9


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा, राजा और आचार्य से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सुदक्ष) अत्यन्त समृद्ध और (इन्दो) जैसे चन्द्रमा समुद्रों की वृद्धि करता है, वैसे ही मनुष्यों की समृद्धि करनेवाले परमात्मन्, राजन् वा आचार्य ! (सुतः) हृदय में प्रकट हुए, राष्ट्र में निर्वाचित हुए अथवा हम समित्पाणि शिष्यों से वरण किये गये आप (नः) हमारे लिए (गोमत्) गायों से अथवा भूमियों से अथवा वेदवाणियों से युक्त और (अश्ववत्) घोड़ों अथवा प्राणों से युक्त ऐश्वर्य को (धनिव) प्राप्त कराइये और (गोषु अधि) राष्ट्र-भूमियों में (शुचिं वर्णं च) पवित्र हृदयवाले ब्राह्मणादि वर्ण को भी, अथवा (गोषु अधि) वाणियों में (शुचिं वर्णं च) पवित्र अक्षर ‘ओम्’ को भी (धारय) धारण कराइये ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥९॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर, राजा और आचार्य स्वयं धन, विद्या आदि से सुसमृद्ध होकर कृपापूर्वक हमें भी धन, विद्या आदि प्रदान करें। जिस राष्ट्र में पवित्र हृदयवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण होते हैं और जहाँ प्रजाओं की वाणियों में ओंकाररूप अक्षर जप आदि रूप में निरन्तर विराजमान रहता है, वह राष्ट्र धन्य कहाता है ॥९॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं राजानमाचार्यं च प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सुदक्ष) सुसमृद्ध। दक्षतिः समृद्धिकर्मा। निरु० १।६। (इन्दो) चन्द्रः समुद्राणामिव जनानां समृद्धिकर परमात्मन्, राजन्, आचार्य वा ! (सुतः) हृदये प्रकटितः, राष्ट्रे निर्वाचितः, समित्पाणिभिरस्माभिः शिष्यैः वृतो वा त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (गोमत्) धेनुयुक्तं, पृथिवीयुक्तं वेदवाग्युक्तं च, (अश्ववत्) तुरगयुक्तं प्राणयुक्तं च रयिमिति शेषः (धनिव) धन्वय प्रापय। धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। अत्र णिजर्थगर्भः। ततो ‘धन्व’ इति प्राप्ते इकारोपजनश्छान्दसः। ऋग्वेदे ‘धन्व’ इत्येव पाठः। (गोषु अधि) राष्ट्रभूमिषु (शुचिं वर्णं च) पवित्रहृदयं ब्राह्मणादिवर्णं च, यद्वा (गोषु अधि) वाणीषु (शुचिं वर्ण च) पवित्रम् ॐकाररूपम् अक्षरं च (धारय) धेहि ॥९॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरो राजाऽऽचार्यो वा स्वयं धनविद्यादिना सुसमृद्धः सन् कृपयास्मभ्यमपि धनज्ञानादिकं प्रयच्छेत्। यस्मिन् राष्ट्रे पवित्रहृदया ब्राह्मणक्षत्रियादयो वर्णा जायन्ते, यत्र प्रजानां वाणीषु ॐकाररूपमक्षरं च जपादिरूपेण सततं विराजते तद् राष्ट्रं खलु धन्यमुच्यते ॥९॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०५।४ ‘धनिव’, ‘शुचिं च’, ‘धारय’ इत्यत्र क्रमेण ‘धन्व’, ‘शुचिं ते’, ‘दीधरम्’ इति पाठः। साम० १६११।