सो꣡मः꣢ पुना꣣न꣢ ऊ꣣र्मि꣢꣫णाव्यं꣣ वा꣢रं꣣ वि꣡ धा꣢वति । अ꣡ग्रे꣢ वा꣣चः꣡ पव꣢꣯मानः꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥५७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सोमः पुनान ऊर्मिणाव्यं वारं वि धावति । अग्रे वाचः पवमानः कनिक्रदत् ॥५७२॥
सो꣡मः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ । अ꣡व्य꣢꣯म् । वा꣡र꣢꣯म् । वि । धा꣣वति । अ꣡ग्रे꣢꣯ । वा꣣चः꣢ । प꣡व꣢꣯मानः । क꣡नि꣢꣯क्रदत् ॥५७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः ब्रह्मानन्दरस का विषय है।
(सोमः) ब्रह्मानन्दरस (पुनानः) उपासक को पवित्र करता हुआ (ऊर्मिणा) लहर के साथ (अव्यं वारम्) भेड़ की ऊन से बने दशापवित्र के तुल्य दोषनिवारक अविनश्वर आत्मा के प्रति (वि धावति) वेग से दौड़ रहा है। (वाचः) प्रोच्चारित स्तुतिवाणी से (अग्रे) पहले ही (पवमानः) धारा रूप से बहता हुआ (कनिक्रदत्) कलकल ध्वनि कर रहा है ॥७॥ इस मन्त्र में ब्रह्मानन्द में कारणभूत स्तुति वाणी के उच्चारण से पूर्व ही ब्रह्मानन्द की उत्पत्ति का वर्णन होने से कारण के पूर्व कार्योदय वर्णित होना रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥७॥
उपासकों से ध्यान किया गया परमेश्वर अपने पास से आनन्दरस की प्रचुर धाराओं को उपासकों के हृदय में प्रेरित करता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्ब्रह्मानन्दरसविषयमाह।
(सोमः) ब्रह्मानन्दरसः (पुनानः) उपासकं पवित्रं कुर्वन् (ऊर्मिणा) तरङ्गेण साकम् (अव्यं वारम्) ऊर्णामयदशापवित्रमिव दोषनिवारकम् अविनश्वरं जीवात्मानं प्रति (वि धावति) वेगेन गच्छति। (वाचः) प्रोच्चारितायाः स्तुत्यात्मिकायाः गिरः (अग्रे) पूर्वमेव (पवमानः) धारारूपेण प्रवहन् सः। पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४। (कनिक्रदत्) कल-कलध्वनिमिव कुर्वन्, अस्तीति शेषः। ‘दाधर्तिदर्धर्ति०। अ० ७।४।६५’ इति क्रन्देर्यङ्लुगन्तात् शतरि निपात्यते ॥७॥ अत्र ब्रह्मानन्दे कारणभूतायाः स्तुतिवाचः उच्चारणात् पूर्वमेव ब्रह्मानन्दप्रवाहस्योदयवर्णनात् कारणात् प्राक् कार्योदयरूपोऽतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥७॥
उपासकैर्ध्यातः परमेश्वरः स्वसकाशादानन्दरसस्य प्रचुरा धारा उपासकानां हृदये प्रेरयति ॥७॥