प्रा꣣णा꣡ शिशु꣢꣯र्म꣣ही꣡ना꣢ꣳ हि꣣न्व꣢न्नृ꣣त꣢स्य꣣ दी꣡धि꣢तिम् । वि꣢श्वा꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣या꣡ भु꣢व꣣द꣡ध꣢ द्वि꣣ता꣢ ॥५७०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्राणा शिशुर्महीनाꣳ हिन्वन्नृतस्य दीधितिम् । विश्वा परि प्रिया भुवदध द्विता ॥५७०॥
प्रा꣣णा꣢ । प्र꣣ । आना꣢ । शि꣡शुः꣢꣯ । म꣣ही꣡ना꣢म् । हि꣣न्व꣢न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । दी꣡धि꣢꣯तिम् । वि꣡श्वा꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣या꣢ । भु꣣वत् । अ꣡ध꣢꣯ । द्वि꣣ता꣢ ॥५७०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा की महिमा वर्णित है।
(प्राणा) उपासकों को प्राण के समान प्रिय, (महीनाम्) वेदवाणियों का (शिशुः) शिशु-तुल्य स्तवनीय, हृदय में (ऋतस्य) सत्य के (दीधितिम्) खजाने को या प्रकाश को (हिन्वन्) प्रेरित करता हुआ सोम परमात्मा (विश्वा) सब (प्रिया) प्रिय मन, बुद्धि आदि और अग्नि, जल, वायु आदियों को (परि भुवत्) व्याप्त किये हुए है। (अध) इस कारण (द्विता) अन्दर और बाहर दो प्रकार से महिमा को प्राप्त है ॥५॥ इस मन्त्र में ‘प्राणा’ तथा ‘शिशुः’ में लुप्तोपमालङ्कार है ॥५॥
शरीररूप पिण्ड में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र जिसकी महिमा प्रकाशित है, वह जगदीश्वर किसका वन्दनीय नहीं है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमस्य परमात्मनो महिमानमाह।
(प्राणा२) प्राणः उपासकानां प्राण इव प्रियः। अत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति सोराकारादेशः। (महीनाम्) वेदवाचाम्। मही इति वाङ्नाम। निघं० १।११। (शिशुः) शिशुरिव शंसनीयः। शिशुः शंसनीयो भवति। निरु० १०।३७। हृदये (ऋतस्य) सत्यस्य (दीधितिम्) निधानं प्रकाशं वा (हिन्वन्) प्रेरयन् सोमः परमात्मा (विश्वा) सर्वाणि (प्रिया) अस्माकं प्रियाणि मनोबुद्ध्यादीनि अग्निजलवाय्वादीनि च (परि भुवत्) परि व्याप्नोति। (अध) अतः कारणात् (द्विता) द्विधा महिमानं प्राप्नोति, अन्तर्जगति बाह्यजगति च। द्विता द्वैधम्। निरु० ५।३।१९ ॥५॥ अत्र प्राण इव, शिशुरिव इति लुप्तोपमम् ॥५॥
शरीरपिण्डे ब्रह्माण्डे च सर्वत्र यस्य महिमा प्रकाशते स जगदीश्वरः कस्य न वन्द्यः ॥५॥