प्र꣡ ध꣢न्वा सोम꣣ जा꣡गृ꣢वि꣣रि꣡न्द्रा꣢येन्दो꣣ प꣡रि꣢ स्रव । द्यु꣣म꣢न्त꣣ꣳ शु꣢ष्म꣣मा꣡ भ꣢र स्व꣣र्वि꣡द꣢म् ॥५६७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र धन्वा सोम जागृविरिन्द्रायेन्दो परि स्रव । द्युमन्तꣳ शुष्ममा भर स्वर्विदम् ॥५६७॥
प्र꣢ । ध꣣न्व । सोम । जा꣡गृ꣢꣯विः । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । इ꣣न्दो । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । द्युम꣡न्त꣢म् । शु꣡ष्म꣢꣯म् । आ । भ꣣र । स्वर्वि꣡द꣢म् । स्वः꣣ । वि꣡द꣢꣯म् ॥५६७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (जागृविः) जागरूक आप (प्र धन्व) सक्रिय होवो। हे (इन्दो) भक्तों को आनन्दरस से भिगोनेवाले ! आप (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (परिस्रव) परिस्रुत होवो। उसे (द्युमन्तम्) देदीप्यमान, (स्वर्विदम्) विवेकख्यातिरूप दिव्य प्रकाश को प्राप्त करानेवाला (शुष्मम्) बल (आ भर) प्रदान करो ॥२॥
मनोयोग से उपासना किया गया परमेश्वर उपासकों को ज्योति-प्रदायक अध्यात्मबल प्रदान करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (जागृविः) जागरूकः त्वम् (प्र धन्व) प्रकर्षेण सक्रियो भव। धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। संहितायाम् ‘द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५’ इति दीर्घः। हे (इन्दो) भक्तानाम् आनन्दरसेन क्लेदक ! त्वम् (इन्द्राय) जीवात्मने (परिस्रव) परिक्षर। तस्मै (द्युमन्तम्) देदीप्यमानम् (स्वर्विदम्) विवेकख्यातिरूपस्य दिव्यप्रकाशस्य लम्भकम् (शुष्मम्) बलम्। शुष्म इति बलनाम। निघं० २।९। (आ भर) आहर ॥२॥
मनोयोगेनोपासितः परमेश्वर उपासकानां ज्योतिष्प्रदमध्यात्मबलं प्रयच्छति ॥२॥