त्रि꣡र꣢स्मै स꣣प्त꣢ धे꣣न꣡वो꣢ दुदुह्रिरे स꣣त्या꣢मा꣣शि꣡रं꣢ पर꣣मे꣡ व्यो꣢मनि । च꣣त्वा꣢र्य꣣न्या꣡ भुव꣢꣯नानि नि꣣र्णि꣢जे꣣ चा꣡रू꣢णि चक्रे꣣ य꣢दृ꣣तै꣡रव꣢꣯र्धत ॥५६०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्रिरस्मै सप्त धेनवो दुदुह्रिरे सत्यामाशिरं परमे व्योमनि । चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत ॥५६०॥
त्रिः꣢ । अ꣣स्मै । सप्त꣢ । धे꣣न꣡वः꣢ । दु꣣दुह्रिरे । सत्या꣢म् । आ꣣शि꣡र꣢म् । आ꣣ । शि꣡र꣢꣯म् । प꣣रमे꣢ । व्यो꣢मन् । वि । ओ꣣मनि । चत्वा꣡रि꣢ । अ꣣न्या꣢ । अ꣣न् । या꣢ । भु꣡व꣢꣯नानि । नि꣣र्णि꣡जे꣢ । निः꣣ । नि꣡जे꣢꣯ । चा꣡रू꣢꣯णि । च꣣क्रे । य꣢त् । ऋ꣣तैः꣢ । अ꣡व꣢꣯र्धत ॥५६०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि स्तोता क्या फल प्राप्त करता है।
(परमे) उत्कृष्ट (व्योमनि) हृदयाकाश में (अस्मै) इस स्तोता के लिए (त्रिः सप्त) इक्कीस छन्दोंवाली (धेनवः) वेदवाणी रूप गौएँ (सत्याम् आशिरम्) सत्य रूप दूध को (दुदुह्रिरे) देती हैं। (यत्) जब यह स्तोता (ऋतैः) सत्य ज्ञानों और सत्य कर्मों से (अवर्द्धत) वृद्धि को प्राप्त करता है, तब (निर्णिजे) अपने आत्मा के शोधन वा पोषण के लिए (चत्वारि) चार (अन्या) अन्य (चारूणि) सुरम्य (भुवनानि) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप भुवनों को (चक्रे) उत्पन्न कर लेता है ॥७॥ धेनु निघण्टु (१।११) में वाणीवाची नामों में पठित है। ताण्ड्य एवं गोपथब्राह्मण में भी कहा है कि ‘वाणी ही धेनु है’ (तां० ब्रा० १८।९।२१, गो० पू० २।२१)। अथवा वेदवाणी में धेनुत्व का आरोप होने से तथा उपमेय का उपमान द्वारा निगरण होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥७॥
सात गायत्र्यादि छन्द, सात अतिजगत्यादि छन्द और सात कृत्यादि छन्द मिलकर इक्कीस छन्द वेद में होते हैं। उन छन्दोंवाली इक्कीस प्रकार की वेदवाणियाँ मानो साक्षात् गौएँ हैं, जो अपने सेवक को सत्यज्ञानरूप और सत्कर्तव्यबोध रूप दूध देती हैं, जिससे परिपुष्ट हुआ वह धर्मार्थकाम-मोक्षरूप भुवनों में निवास करता हुआ जीवन की सफलता को प्राप्त कर लेता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ स्तोता किं फलं प्राप्नोतीत्याह।
(परमे) उत्कृष्टे (व्योमनि) हृदयाकाशे (अस्मै) स्तोत्रे जनाय (त्रिः सप्त) एकविंशतिसंख्यका एकविंशतिच्छन्दोयुताः (धेनवः) वेदवाग्रूपा गावः (सत्याम् आशिरम्) सत्यरूपं दुग्धम् (दुदुह्रिरे) दुहन्ति। अत्र ‘बहुलं छन्दसि। अ० ७।१।८’ इति रुडागमः। (यत्) यदा एष (ऋतैः) सत्यैः ज्ञानकर्मभिः (अवर्द्धत) वृद्धिं गच्छति, तदायम् (निर्णिजे) आत्मनः शोधनाय पोषणाय वा। णिजिर् शौचपोषणयोः। चत्वारि चतुःसंख्यकानि (अन्या) अन्यानि (चारूणि) सुरम्याणि (भुवनानि) धर्मार्थकाममोक्षरूपाणि (चक्रे) सम्पादयति ॥७॥२ धेनुः इति वाङ्नामसु पठितम्। निघं० १।११। ‘वाग् वै धेनुः’ इति च ब्राह्मणम्, तां० ब्रा० १८।९।२१, गो० पू० २।२१। यद्वा वेदवाचि धेनुत्वारापोद्, उपमेयस्योपमानेन निगरणाच्चातिशयोक्तिरलङ्कारः ॥७॥
सप्त गायत्र्यादीनि सप्त अतिजगत्यादीनि सप्त च कृत्यादीनि मिलित्वा एकविंशतिश्छन्दांसि भवन्ति। तन्मय्य एकविंशतिविधा वेदवाचः साक्षाद् धेनव इव सन्ति, याः स्वगोपालाय सत्यज्ञानरूपं सत्कर्तव्यबोधरूपं च पयः प्रयच्छन्ति, येन परिपुष्टः स धर्मार्थकाममोक्षरूपेषु चतुर्षु भुवनेषु कृतनिवासो जीवनसाफल्यमधिगच्छति ॥७॥