अ꣣भी꣡ न꣢वन्ते अ꣣द्रु꣡हः꣢ प्रि꣣य꣡मिन्द्र꣢꣯स्य꣣ का꣡म्य꣢म् । व꣣त्सं꣢꣫ न पूर्व꣣ आ꣡यु꣢नि जा꣣त꣡ꣳ रि꣢हन्ति मा꣣त꣡रः꣢ ॥५५०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभी नवन्ते अद्रुहः प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । वत्सं न पूर्व आयुनि जातꣳ रिहन्ति मातरः ॥५५०॥
अ꣣भि꣢ । न꣣वन्ते । अद्रु꣡हः꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हः꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । का꣡म्य꣢꣯म् । व꣣त्स꣢म् । न । पू꣡र्वे꣢꣯ । आ꣡यु꣢꣯नि । जा꣣त꣢म् । रि꣣हन्ति । मात꣡रः꣢ ॥५५०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि मनोवृत्तियाँ परमात्मा का कैसे स्वाद लेती हैं।
(अद्रुहः) द्रोह न करनेवाली, प्रत्युत स्नेह करनेवाली, (मातरः) माताओं के समान पालन करनेवाली मनोवृत्तियाँ (प्रियम्) प्रिय, (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (काम्यम्) चाहने योग्य परमात्मा की (अभि) ओर (नवन्ते) जाती हैं, और (जातम्) हृदय में प्रकट हुए उसे (रिहन्ति) चाटती हैं अर्थात् उससे सम्पर्क करती हैं, (जातम्) उत्पन्न हुए (वत्सम्) अपने बछड़े को (न) जैसे (पूर्वे आयुनि) प्रथम आयु में (मातरः) गौ-माताएँ (रिहन्ति) चाटती हैं ॥६॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। चाटना जिह्वा से होता है, वह मनोवृत्तियों के पक्ष में घटित नहीं होता। इसलिए यहाँ लक्षणा से संसर्ग अर्थ का बोध होता है, सामीप्य का अतिशय व्यङ्ग्य है। गाय के पक्ष में जिह्वा से चाटना सम्भव होने से लक्षणा नहीं है ॥६॥
जैसे नवजात बछड़े को गौएँ प्रेम से चाटती हैं, वैसे ही हृदय में प्रादुर्भूत परमेश्वर का उसके प्रेम में भरकर मनोवृत्तियाँ रसास्वादन करती हैं ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ मनोवृत्तयः परमात्मानं कथमास्वादयन्तीत्याह।
(अद्रुहः) न द्रुह्यन्ति प्रत्युत स्निह्यन्ति यास्ताः (मातरः) जननीवत् पालयित्र्यः मनोवृत्तयः (प्रियम्) स्निग्धम्, (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (काम्यम्) अभिलषणीयम् सोमं परमात्मानम् (अभि) अभिलक्ष्य (नवन्ते) गच्छन्ति। नवते गतिकर्मा। निघं० २।१४। (जातम्) हृदि आविर्भूतं च तम् (रिहन्ति) लिहन्ति, आस्वादयन्ति, तेन संसृज्यन्ते इत्यर्थः। रिह आस्वादने। (जातम्) उत्पन्नम् (वत्सम्) स्वतर्णकम् (न) यथा (पूर्वे आयुनि) प्रथमे वयसि। अत्र छान्दसस्य उकारान्तस्य आयुशब्दस्य नपुंसि सप्तम्येकवचने रूपं विज्ञेयम्। (मातरः) तज्जनन्यो धेनवः (रिहन्ति) जिह्वया लिहन्ति ॥६॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। लेहनं तावज्जिह्वया भवति, तच्च मनोवृत्तीनां पक्षे न घटते। तेनात्र लक्षणया संसर्गार्थो बोध्यते, सामीप्यातिशयश्च व्यङ्ग्यः। धेनुपक्षे तु जिह्वया लेहनं संभवत्येव, अतस्तत्र न लक्षणा ॥६॥
यथा नवजातं वत्सं धेनवः प्रेम्णा लिहन्ति, तथैव हृदि प्रादुर्भूतं परमेश्वरं मनोवृत्तयस्तत्प्रेमपरिप्लुताः सत्य आस्वादयन्ति ॥६॥