अ꣡स꣢र्जि꣣ व꣢क्वा꣣ र꣢थ्ये꣣ य꣢था꣣जौ꣢ धि꣣या꣢ म꣣नो꣡ता꣢ प्रथ꣣मा꣡ म꣢नी꣣षा꣣ । द꣢श꣣ स्व꣡सा꣢रो꣣ अ꣢धि꣣ सा꣢नो꣣ अ꣡व्ये꣢ मृ꣣ज꣢न्ति꣣ व꣢ह्नि꣣ꣳ स꣡द꣢ने꣣ष्व꣡च्छ꣢ ॥५४३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)असर्जि वक्वा रथ्ये यथाजौ धिया मनोता प्रथमा मनीषा । दश स्वसारो अधि सानो अव्ये मृजन्ति वह्निꣳ सदनेष्वच्छ ॥५४३॥
अ꣡स꣢꣯र्जि । व꣡क्वा꣢꣯ । र꣡थ्ये꣢꣯ । य꣡था꣢꣯ । आ꣣जौ꣢ । धि꣣या꣢ । म꣣नो꣡ता꣢ । प्र꣣थमा꣢ । म꣣नीषा꣢ । द꣡श꣢꣯ । स्व꣡सा꣢꣯रः । अ꣡धि꣢꣯ । सा꣡नौ꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ । मृ꣣ज꣡न्ति꣢ । व꣡ह्नि꣢꣯म् । स꣡द꣢꣯नेषु । अ꣡च्छ꣢꣯ ॥५४३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में प्राण को प्रेरित करने और जीवात्मा को शुद्ध करने का विषय है।
(यथा) जिस प्रकार (रथ्ये) रथों से युद्ध करने योग्य (आजौ) संग्राम में (वक्वा) शब्द करनेवाला घोड़ा (असर्जि) प्रेरित किया जाता है, वैसे ही (मनोता) जिसमें ज्ञान ओत-प्रोत है, ऐसी (प्रथमा) श्रेष्ठ (मनीषा) मन को गति देनेवाली (धिया) बुद्धि से (वक्वा) शब्दकारी प्राण (असर्जि) प्रेरित किया जाता है। जैसे (दश) दस (स्वसारः) अंगुलियाँ (सदनेषु अच्छ) यज्ञ-सदनों में (अव्ये) भेड़ के बालों से निर्मित (सानौ अधि) ऊपर उठाये हुए दशापवित्र में (वह्निम्) यज्ञ के वाहक सोमरस को (मृजन्ति) छानकर शुद्ध करती हैं, वैसे ही (दश) दस (स्वसारः) बहिनों के समान परस्पर सम्बद्ध प्राणशक्तियाँ (सदनेषु अच्छ) शरीर रूप सदनों में (अव्ये) नाशरहित (सानौ अधि) सर्वोन्नत परमात्मा के सान्निध्य में (वह्निम्) शरीर के वाहक जीवात्मा को (मृजन्ति) शुद्ध करती हैं ॥११॥ इस मन्त्र के पूर्वार्द्ध में वाच्य उपमालङ्कार है। उत्तरार्द्ध में श्लेषमूलक व्यङ्ग्योपमा है। ‘मनो, मनी’ में छेकानुप्रास है। ‘मनोता, प्रथमा, मनीषा’ में मकार का और ‘रथ्ये यथाजौ धिया’ में यकार का अनुप्रास है ॥११॥
परमात्मा के आश्रय को प्राप्त करके जीवात्मा वैसे ही शुद्ध हो जाता है, जैसे दशापवित्र रूप छन्नी को प्राप्त कर सोमरस शुद्ध होता है ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ प्राणप्रेरणजीवात्मशोधनविषयमाह।
(यथा) येन प्रकारेण (रथ्ये) रथैः योद्धुमर्हे (आजौ) सङ्ग्रामे। आजिः इति सङ्ग्रामनाम निघं० २।१७। (वक्वा२) शब्दकर्ता अश्वः (असर्जि) प्रेर्यते, तथा (मनोता३) मना ज्ञानानि ओतानि यस्यां सा मनोता तया, (प्रथमा) प्रथमया श्रेष्ठया (मनीषा) मनसः प्रेरयित्र्या। मनः ईषयते गमयति इति मनीषा तया। ईषतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। मनोता, प्रथमा, मनीषा इति सर्वत्र तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्’ अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (धिया) बुद्ध्या, (वक्वा) शब्दकर्ता प्राणः (असर्जि) प्रेर्यते। यथा च (दश) दशसंख्यकाः (स्वसारः) अङ्गुलयः। स्वसारः इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। निघं० २।५। (सदनेषु अच्छ) यज्ञगृहेषु (अव्ये) अविबालमये (सानौ अधि) उच्छ्रिते दशापवित्रे (वह्निम्४) यज्ञस्य वाहकं सोमौषधिरसम् (मृजन्ति) शोधयन्ति। मृजूष् शुद्धौ, अदादिः। तथा (दश) दशसंख्यकाः (स्वसारः) भगिनीवत् परस्परसम्बद्धाः प्राणशक्तयः (सदनेषु अच्छ) देहरूपेषु सदनेषु (अव्ये) अव्यये नाशरहिते (सानौ अधि) उच्छ्रिते परमात्मनि, परमात्मसान्निध्ये इत्यर्थः। (वह्निम्) शरीरस्य वाहकं जीवात्मानम् (मृजन्ति) शोधयन्ति ॥११॥ अत्र पूर्वार्द्धे वाच्य उपमालङ्कारः। उत्तरार्द्धे श्लेषमूला व्यङ्ग्योपमा। ‘मनो, मनी’ इति छेकानुप्रासः। ‘मनोता, प्रथमा, मनीषा’ इत्यत्र मकारानुप्रासः। ‘रथ्ये यथाजौ धिया’ इत्यत्र च यकारानुप्रासः ॥११॥
परमात्मन आश्रयं प्राप्य जीवात्मा तथैव शुद्ध्यति यथा दशापवित्रं प्राप्य सोमरसः ॥११॥