सो꣡म꣢ उ ष्वा꣣णः꣢ सो꣣तृ꣢भि꣣र꣢धि꣣ ष्णु꣢भि꣣र꣡वी꣢नाम् । अ꣡श्व꣢येव ह꣣रि꣡ता꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या म꣣न्द्र꣡या꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या ॥५१५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सोम उ ष्वाणः सोतृभिरधि ष्णुभिरवीनाम् । अश्वयेव हरिता याति धारया मन्द्रया याति धारया ॥५१५॥
सो꣡मः꣢꣯ । उ꣣ । स्वानः꣢ । सो꣣तृ꣡भिः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । स्नु꣡भिः꣢꣯ । अ꣡वी꣢꣯नाम् । अ꣡श्व꣢꣯या । इ꣣व꣢ । हरि꣡ता꣢ । या꣣ति । धा꣡र꣢꣯या । म꣣न्द्र꣡या꣢ । या꣣ति । धा꣡र꣢꣯या ॥५१५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सोमरस अथवा आनन्दरस किस प्रकार प्रवाहित होता है।
प्रथम—सोमरस के पक्ष में। (सोतृभिः) सोम-रस निचोड़नेवाले मनुष्यों से (अवीनां स्नुभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित ऊँचे उठाये दशापवित्रों द्वारा (अधिष्वाणः) अभिषुत किया जाता हुआ (सोमः) सोम ओषधि का रस (अश्वया इव) घोड़ी के समान (हरिता) वेगवती (धारया) धारा के साथ (याति) द्रोणकलश में जाता है, (मन्द्रया) हर्षकारिणी (धारया) धारा के साथ (याति) द्रोणकलश में जाता है ॥ द्वितीय—अध्यात्मपक्ष में। (सोतृभिः) परमात्मा के पास से आनन्दरस को अभिषुत करनेवाले उपासकों से (अवीनां स्नुभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित ऊपर उठाये दशापवित्रों के तुल्य मन की समुन्नत सात्त्विक वृत्तियों द्वारा (अधिष्वाणः) अभिषुत किया जाता हुआ (सोमः) आनन्दरस (अश्वया इव) घोड़ी के समान (हरिता) वेगवती (धारया) धारा के साथ (याति) आत्मा को प्राप्त होता है, (मन्द्रया) हर्षकारिणी (धारया) धारा के साथ (याति) आत्मा में पहुँचता है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार है। ‘याति धारया’ की पुनरावृत्ति में लाटानुप्रास है ॥५॥
उपासक लोग जब तल्लीन मन से परमात्मा का ध्यान करते हैं, तब अपने आत्मा के अन्दर दिव्य आनन्द के धाराप्रवाह का अनुभव करते हैं ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमरस आनन्दरसो वा कथं प्रवहतीत्याह।
प्रथमः—सोमरसपरः। (सोतृभिः) सवनकर्तुभिः जनैः (अवीनां स्नुभिः) अविबालनिर्मितैः सानुवत् समुच्छ्रितैः दशापवित्रैः (अधिष्वाणः) अधिषूयमाणः (सोमः) सोमौषधिरसः (अश्वया इव) वडवया इव (हरिता) वेगवत्या। हरिता हरितया ‘सुपां सुलुक्०’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) द्रोणकलशं प्राप्नोति, (मन्द्रया) मदकारिण्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) द्रोणकलशं गच्छति ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः (सोतृभिः) परमात्मनः सकाशाद् आनन्दरसं सुन्वद्भिः उपासकैः (अवीनां स्नुभिः) अविबालनिर्मितैः समुच्छ्रितैः दशापवित्रैरिव समुच्छ्रिताभिः मनसां सात्त्विकवृत्तिभिः (अधिष्वाणः) अभिषूयमाणः (सोमः) आनन्दरसः (अश्वया इव) वडवया इव (हरिता) वेगवत्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) आत्मानं प्राप्नोति, (मन्द्रया) हर्षकारिण्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) आत्मानमुपगच्छति ॥५॥ अत्र श्लेष उपमा चालङ्कारः, ‘याति धारया’ इत्यस्य पुनरावृत्तौ च लाटानुप्रासः ॥५॥
उपासका यदा तल्लीनेन मनसा परमात्मानं ध्यायन्ति तदा स्वात्मनि दिव्यानन्दधारासम्पातमनुभवन्ति ॥५॥