इ꣣षे꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या मृ꣣ज्य꣡मा꣢नो मनी꣣षि꣡भिः꣢ । इ꣡न्दो꣢ रु꣣चा꣡भि गा इ꣢꣯हि ॥५०५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इषे पवस्व धारया मृज्यमानो मनीषिभिः । इन्दो रुचाभि गा इहि ॥५०५॥
इ꣣षे꣢ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः । म꣣नीषि꣡भिः꣢ । इ꣡न्दो꣢꣯ । रु꣣चा꣢ । अ꣣भि꣢ । गाः । इ꣣हि ॥५०५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हे (इन्दो) रस के भण्डार, चन्द्रमा के समान आह्लाददायक परब्रह्म परमेश्वर ! (मनीषिभिः) चिन्तनशील हम उपासकों द्वारा (मृज्यमानः) स्तुतियों से अलङ्कृत किये जाते हुए आप (इषे) इच्छासिद्धि के लिए (धारया) आनन्द की धारा के साथ (पवस्व) हमारे अन्तः करण में प्रवाहित होवो। आप (रुचा) तेज के साथ (गाः अभि) हम स्तोताओं के प्रति (इहि) आओ ॥९॥
स्तोताओं से उपासना किया गया रसनिधि परमेश्वर आनन्दरस से उन्हें तृप्त करता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (इन्दो) रसागार चन्द्रवदाह्लादक परब्रह्म परमेश्वर ! (मनीषिभिः) चिन्तनशीलैरुपासकैः अस्माभिः (मृज्यमानः) स्तुतिभिः अलङ्क्रियमाणः त्वम्। मृजू शौचालङ्कारयोः। (इषे) इच्छासिद्धये (धारया) आनन्दप्रवाहसन्तत्या (पवस्व) अस्माकमन्तःकरणे परिस्रव, त्वम् (रुचा) तेजसा सह (गाः अभि) स्तोतॄन् अस्मान् प्रति। गौः इति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। (इहि) प्रयाहि ॥९॥
स्तोतृभिरुपासितो रसनिधिः परमेश्वरस्तानन्दरसेन तर्पयति ॥९॥