अ꣡र्षा꣢ सोम द्यु꣣म꣡त्त꣢मो꣣ऽभि꣡ द्रोणा꣢꣯नि꣣ रो꣡रु꣢वत् । सी꣢द꣣न्यो꣢नौ꣣ व꣢ने꣣ष्वा꣢ ॥५०३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अर्षा सोम द्युमत्तमोऽभि द्रोणानि रोरुवत् । सीदन्योनौ वनेष्वा ॥५०३॥
अ꣡र्षा꣢꣯ । सो꣣म । द्युम꣡त्त꣢मः । अ꣣भि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नि । रो꣡रु꣢वत् । सी꣡द꣢꣯न् । यो꣡नौ꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । आ ॥५०३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा तथा वानप्रस्थ मनुष्य का आह्वान किया गया है।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (वनेषु) वनों में, वन के लता-कुञ्ज आदियों में, और (योनौ) नगरस्थ घरों में, सर्वत्र (सीदन्) विराजमान होते हुए (द्युमत्तमः) अतिशय तेजस्वी आप (रोरुवत्) उपदेश करते हुए (द्रोणानि अभि) हमारे हृदय-रूप द्रोण-कलशों में (अर्ष) आइए ॥ द्वितीय—वानप्रस्थ के पक्ष में। हे (सोम) विद्वन् वानप्रस्थ ! (वनेषु) वनों में (योनौ) वृक्ष-मूल रूप घर में (आसीदन्) निवास करते हुए, (द्युमत्तमः) अतिशय तेजस्वी आप (रोरुवत्) पुनः-पुनः उपदेश करने की इच्छा रखते हुए (द्रोणानि अभि) गृहस्थों से आयोजित यज्ञों में (अर्ष) आइए ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
जैसे वनों में उगनेवाला सोम वहाँ से लाया जाकर दशापवित्र से छाना जाता हुआ शब्द के साथ द्रोण-कलश में आता है और जैसे रसनिधि परमेश्वर उपदेश देता हुआ स्तोताओं के हृदय में प्रकट होता है, वैसे ही वानप्रस्थ मनुष्य नगरवासियों से आयोजित यज्ञों में उपदेशार्थ आये ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमः परमात्मा वानप्रस्थो वाऽऽहूयते।
प्रथमः—परमात्मपरः। हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (वनेषु) अरण्येषु, अरण्यस्थेषु लताकुञ्जादिषु, (योनौ) नगरस्थे गृहे च, सर्वत्र इति यावत्। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। जातौ एकवचनम्। (आसीदन्) विराजमानः (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः, त्वम् (रोरुवत्) उपदिशन् (द्रोणानि अभि) अस्माकं हृदयरूपान् द्रोणकलशान् प्रति (अर्ष) आयाहि। ऋ गतौ, लेटि रूपम्। ‘द्व्यचोऽतस्तिङः।’ अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः ॥ अथ द्वितीयः—वानप्रस्थपरः। हे (सोम) विद्वन् वानप्रस्थ ! (वनेषु) अरण्येषु (योनौ) वृक्षमूलरूपे गृहे, वृक्षमूलनिकेतनः। मनु० ६।२६ इति वचनात्। (आसीदन्) निवसन् (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः त्वम् (रोरुवत्) पुनः पुनः उपदेक्ष्यन् (द्रोणानि अभि) गृहस्थैरायोजितान् यज्ञान् प्रति। यज्ञो वै द्रोणकलशः। श० ४।५।८।५। (अर्ष) गच्छ ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
यथा वनेषु प्ररूढः सोमस्तत आनीतो दशापवित्रेण संशोध्यमानः सशब्दं द्रोणकलशमागच्छति, यथा च रसनिधिः परमेश्वर उपदिशन् स्तोतॄणां हृदयप्रदेशं समेति तथैव वानप्रस्थो नगरवासिभिरायोजितान् यज्ञानुपदेशार्थं गच्छेत् ॥७॥