प꣡रि꣢ द्यु꣣क्ष꣡ꣳ सन꣢꣯द्र꣣यिं꣢꣫ भर꣣द्वा꣡जं꣢ नो꣣ अ꣡न्ध꣣सा । स्वा꣣नो꣡ अ꣢र्ष प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣢ ॥४९६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)परि द्युक्षꣳ सनद्रयिं भरद्वाजं नो अन्धसा । स्वानो अर्ष पवित्र आ ॥४९६॥
प꣡रि꣢꣯ । द्यु꣣क्ष꣢म् । द्यु꣣ । क्ष꣢म् । स꣡न꣢꣯त् । र꣣यि꣢म् । भ꣡र꣢꣯त् । वा꣡ज꣢꣯म् । नः꣣ । अ꣡न्ध꣢꣯सा । स्वा꣣नः । अ꣣र्ष । प꣣वि꣡त्रे꣢ । आ ॥४९६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमात्मा-रूप सोम क्या-क्या प्रदान करे, यह कहते हैं।
हे सोम ! हे रसागार परमात्मन् ! (द्युक्षम्) दीप्ति के निवासक (रयिम्) दिव्य ऐश्वर्य को (सनत्) देते हुए, और (अन्धसा) आनन्द-रस के साथ (नः) हमारे लिए (वाजम्) आत्म-बल को (भरत्) लाते हुए, (स्वानः) झरते हुए, आप (पवित्रे) दशापवित्र के तुल्य पवित्र हृदय में (आ अर्ष) आओ ॥१०॥
उपासक के हृदय में परमात्मा से झरा आनन्द-रस अनुपम ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस और आत्मबल आदि प्रदान करता है ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा-रूप सोम और उससे झरे हुए आनन्द, वीरता आदि के रस का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मसोमः किं किं प्रयच्छेदित्याह।
हे सोम ! हे रसागार परमात्मन् ! (द्युक्षम्) दीप्तेनिवासकम् (रयिम्) दिव्यम् ऐश्वर्यम् (सनत्) प्रयच्छन्, किञ्च (अन्धसा) आनन्दरसेन सह (नः) अस्मभ्यम् (वाजम्) आत्मबलम् (भरत्) आहरन् (स्वानः) अभिषूयमाणः, निर्झरन्, त्वम्, (पवित्रे) दशापवित्रे इव पवित्रे हृदये (आ अर्ष) आगच्छ ॥१०॥
उपासकस्य हृदये परमात्मनः सकाशात् प्रस्रुत आनन्दरसोऽनुपममैश्वर्यं ब्रह्मवर्चसम् आत्मबलादिकं च प्रयच्छति ॥१०॥ अत्र परमात्मरूपस्य सोमस्य, ततः प्रस्रुतस्यानन्दवीरत्वादिरसस्य च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥१०॥ इति षष्ठे प्रपाठके प्रथमार्द्धे प्रथमा दशतिः ॥ इतिपञ्चमेऽध्याये तृतीयः खण्डः ॥