स꣡ प꣢वस्व꣣ य꣢꣫ आवि꣣थे꣡न्द्रं꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे । व꣣व्रिवा꣡ꣳसं꣢ म꣣ही꣢र꣣पः꣢ ॥४९४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स पवस्व य आविथेन्द्रं वृत्राय हन्तवे । वव्रिवाꣳसं महीरपः ॥४९४॥
सः꣢ । प꣣वस्व । यः꣢ । आ꣡वि꣢꣯थ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वृ꣣त्रा꣡य꣢ । ह꣡न्त꣢꣯वे । व꣣व्रिवाँ꣡स꣢म् । म꣣हीः꣢ । अ꣣पः꣢ ॥४९४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पापरूप वृत्र के वध का विषय है।
हे वीर-रस के भण्डार सोम परमेश्वर ! (सः) वह प्रसिद्ध आप, हमारे पास (पवस्व) अपनी रक्षा-शक्ति के साथ आओ, (यः) जो आप (महीः अपः) बड़ी धर्मरूप धाराओं को (वव्रिवांसम्) वरण करनेवाले (इन्द्रम्) जीवात्मा को (वृत्राय हन्तवे) अधर्म, पाप आदि के विनाशार्थ (आविथ) प्राप्त होते हो ॥८॥
देवासुरसंग्राम में विजय पाने के लिए परमेश्वर से प्रेरणा पाकर पुरुषार्थ करना चाहिए ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पापवृत्रस्य वधविषयमाह।
हे वीररसनिधे सोम परमेश्वर ! (सः) प्रसिद्धः त्वम्, अस्मान् (पवस्व) स्वकीयया रक्षया सह समागच्छ, (यः) यस्त्वम् (महीः अपः) महतीः धर्मधाराः (वव्रिवांसम्) वृतवन्तम्। वृणोतेर्लिटः क्वसौ रूपम्। (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (वृत्राय हन्तवे) अधर्मपापादिकस्य हननाय (आविथ) प्राप्नोषि। अवतेर्गत्यर्थस्य लिटि रूपम् ॥८॥
देवासुरसंग्रामे विजयं लब्धुं परमेश्वरात् प्रेरणां लब्ध्वा पुरुषार्थः कार्यः ॥८॥