उ꣢पो꣣ षु꣢ जा꣣त꣢म꣣प्तु꣢रं꣣ गो꣡भि꣢र्भ꣣ङ्गं꣡ परि꣢꣯ष्कृतम् । इ꣡न्दुं꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢यासिषुः ॥४८७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उपो षु जातमप्तुरं गोभिर्भङ्गं परिष्कृतम् । इन्दुं देवा अयासिषुः ॥४८७॥
उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । जा꣣त꣢म् । अ꣣प्तु꣡र꣢म् । गो꣡भिः꣢ । भ꣣ङ्ग꣢म् । प꣡रि꣢꣯ष्कृतम् । प꣡रि꣢꣯ । कृ꣣तम् । इ꣡न्दु꣢꣯म् । दे꣣वाः꣢ । अ꣣यासिषुः ॥४८७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि विद्वान् लोग कैसे परमेश्वर का अवलम्ब लेते हैं ॥
(सु जातम्) सुप्रसिद्ध, (अप्तुरम्) कर्म करने में शीघ्रतायुक्त, (भङ्गम्) दुःखों के भञ्जक, (गोभिः परिष्कृतम्) प्रकाश-किरणों से अलङ्कृत अर्थात् तेजस्वी (इन्दुम्) चाँद के समान आह्लादक, रस से आर्द्र करनेवाले तथा सोम ओषधि के समान रसमय परमात्मा को (देवाः) विद्वान् लोग (उप उ अयासिषुः) निकटता से प्राप्त करते हैं ॥१॥
जो परमेश्वर प्रसिद्ध कीर्तिवाला, जगत् की उत्पत्ति, धारण आदि क्रियाओं को करनेवाला, दुःखियों का दुःख दूर करनेवाला, दिव्य तेजों से अलङ्कृत, अपने शान्तिदायक आनन्द-रस में स्नान करानेवाला, चन्द्रमा के समान सुन्दर और सोमलता के समान रस से पूर्ण है, उसकी सबको उपासना करनी चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ विद्वांसः कीदृशं परमेश्वरमवलम्बन्त इत्याह।
(सुजातम्) सुख्यातम्, (अप्तुरम्) कर्मसु सत्वरम्, (भङ्गम्) दुःखभञ्जकम्, (गोभिः परिष्कृतम्) प्रकाशरश्मिभिः अलङ्कृतम्, तेजस्विनमिति यावत् (इन्दुम्) चन्द्रवदाह्लादकं, रसेन क्लेदकं, सोमौषधिवद् रसमयं च परमात्मानम् (देवाः) विद्वांसः (उप उ अयासिषुः) उपगच्छन्ति ॥१॥
यः परमेश्वरः प्रख्यातकीर्तिर्जगत्सर्जनधारणादिक्रियायुक्तो दुःखिनां दुःखद्रावको दिव्यतेजोभिरलङ्कृतः स्वकीयेन शान्तिप्रदेनानन्दरसेन स्नपयिता चन्द्र इव चारुः सोमवल्लीव रसपूर्णश्चास्ति स सर्वैर्जनैरुपासनीयः ॥१॥