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प꣡व꣢मानो अजीजनद्दि꣣व꣢श्चि꣣त्रं꣡ न त꣢꣯न्य꣣तु꣢म् । ज्यो꣡ति꣢र्वैश्वान꣣रं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥४८४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पवमानो अजीजनद्दिवश्चित्रं न तन्यतुम् । ज्योतिर्वैश्वानरं बृहत् ॥४८४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯मानः । अ꣣जीजनत् । दिवः꣢ । चि꣣त्र꣢म् । न । त꣣न्यतु꣢म् । ज्यो꣡तिः꣢ । वै꣣श्वानर꣢म् । वै꣣श्व । नर꣢म् । बृ꣣ह꣢त् ॥४८४॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 484 | (कौथोम) 5 » 2 » 5 » 8 | (रानायाणीय) 5 » 2 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्राप्त ज्योति का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पवमानः) पवित्रतादायक सोम परमेश्वर (दिवः) आकाश की (चित्रम्) चित्र-विचित्र (तन्यतुं न) विद्युत् के समान (बृहत्) विस्तीर्ण (वैश्वानरम्) विश्व का नेतृत्व करनेवाली (ज्योतिः) दिव्य ज्योति को (अजीजनत्) उत्पन्न कर देता है ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥

भावार्थभाषाः -

ईश्वर की आराधना से हृदय में विद्युत् के समान अद्भुत ज्योति परिस्फुरित हो जाती है, जिससे मनुष्य विवेकख्याति प्राप्त कर लेता है ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ सोमाख्यात् परमात्मनः प्राप्तं ज्योतिर्वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पवमानः) पवित्रतादायकः सोमः परमेश्वरः (दिवः) आकाशस्य (चित्रम्) चित्ररूपम् (तन्यतुम् न) विद्युतमिव (बृहत्) विस्तीर्णम् (वैश्वानरम्) विश्वनेतृत्वकारि। यद् विश्वं नृणाति नयति तद् वैश्वानरम्। (ज्योतिः) दिव्यं तेजः (अजीजनत्) जनयति ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥

भावार्थभाषाः -

ईश्वराराधनेन हृदि विद्युदिव अद्भुतं ज्योतिः परिस्फुरति, येन विवेकख्यातिं लभते जनः ॥८॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६१।१६। साम० ८८९।