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अ꣡सृ꣢क्षत꣣ प्र꣢ वा꣣जि꣡नो꣢ ग꣣व्या꣡ सोमा꣢꣯सो अश्व꣣या꣢ । शु꣣क्रा꣡सो꣢ वीर꣣या꣡शवः꣢꣯ ॥४८२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

असृक्षत प्र वाजिनो गव्या सोमासो अश्वया । शुक्रासो वीरयाशवः ॥४८२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡सृ꣢꣯क्षत । प्र । वा꣣जि꣡नः꣢ । ग꣣व्या꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । अ꣣श्वया꣢ । शु꣣क्रा꣡सः꣢ । वी꣣रया꣢ । आ꣣श꣡वः꣢ ॥४८२॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 482 | (कौथोम) 5 » 2 » 5 » 6 | (रानायाणीय) 5 » 2 » 6


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में भक्तिरस को अभिषुत करने का प्रयोजन वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वाजिनः) सबल, (शुक्रासः) पवित्र, (आशवः) वेगवान् (सोमासः) प्रभु-भक्ति के रस (गव्या) अन्तःप्रकाश-प्राप्ति की इच्छा से, (अश्वया) प्राणों की ऊर्ध्वप्रेरणा की इच्छा से, और (वीरया) वीरता-प्राप्ति की इच्छा से (प्र असृक्षत) मेरे द्वारा प्रवाहित किये गये हैं ॥६॥

भावार्थभाषाः -

अन्तःकरण में भगवद्भक्ति के रस को प्रवाहित करने से अन्तः-प्रकाश की स्फूर्ति, प्राणों का ऊर्ध्वारोहण और दिव्यकर्मों में उत्साह पैदा होता है ॥६॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ भक्तिरसाभिषवस्य प्रयोजनमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वाजिनः) सबलाः, (शुक्रासः) पवित्राः, (आशवः) वेगवन्तः (सोमासः) परमात्मभक्तिरसाः (गव्या) अन्तःप्रकाशप्राप्तीच्छया, (अश्वया) प्राणानामूर्ध्वप्रेरणेच्छया, (वीरया) वीरत्वप्राप्तीच्छया च (प्र असृक्षत) मया प्रकर्षेण सृज्यन्ते अभिषूयन्ते। सृज विसर्गे धातोः कर्मणि छान्दसं रूपम्। गव्या, अश्वया, वीरया इत्यत्र गो-अश्व-वीर- शब्देभ्यः आत्मन इच्छायां क्यच्, ‘अ प्रत्ययात्’ ३।३।१०२, इति अ प्रत्ययः, स्त्रियां टाबन्तस्य अश्वयया, गव्ययया, वीरयया इति प्राप्ते ‘सुपां सुलुगिति’ तृतीयाया लुक् ॥६॥

भावार्थभाषाः -

अन्तःकरणे भगवद्भक्तिरसप्रवाहेणान्तःप्रकाशस्फुरणं प्राणानामूर्ध्वारोहो दिव्यकर्मसु चोत्साहः प्रवर्तते ॥६॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६४।४, साम० १०३४।