इ꣡न्दुः꣢ पविष्ट꣣ चे꣡त꣢नः प्रि꣣यः꣡ क꣢वी꣣नां꣢ म꣣तिः꣢ । सृ꣣ज꣡दश्व꣢꣯ꣳ र꣣थी꣡रि꣢व ॥४८१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्दुः पविष्ट चेतनः प्रियः कवीनां मतिः । सृजदश्वꣳ रथीरिव ॥४८१॥
इ꣡न्दुः꣢꣯ । प꣣विष्ट । चे꣡त꣢꣯नः । प्रि꣣यः꣢ । क꣣वीना꣢म् । म꣣तिः꣢ । सृ꣣ज꣢त् । अ꣡श्व꣢꣯म् । र꣣थीः꣢ । इ꣣व ॥४८१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।
(चेतनः) चेतना प्रदान करनेवाला, (कवीनां प्रियः) मेधावियों का प्रिय, (मतिः) ज्ञाता, (इन्दुः) चन्द्रमा के समान आह्लादक, सोमलता के समान रसागार परमेश्वर (पविष्ट) अन्तःकरण को पवित्र करता है और (अश्वम्) प्राण को (सृजत्) ऊर्ध्वारोहण के लिए प्रेरित कर देता है, (रथीः इव) जैसे सारथि (अश्वम्) रथ में नियुक्त घोड़े को (सृजत्) चलने के लिए प्रेरित करता है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥५॥
उपासना किया हुआ परमात्मा-रूप सोम योगी के चित्त को पवित्र करके उसके प्राणों को योगसिद्धियों के प्राप्त्यर्थ ऊर्ध्वारोहण के लिए प्रेरित कर देता है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमस्य परमात्मनो गुणकर्माणि वर्णयति।
(चेतनः) चेतयिता, (कवीनां प्रियः) मेधाविनां प्रेमपात्रभूतः, (मतिः) मन्ता (इन्दुः) चन्द्रवदाह्लादकः सोमलतावद् रसागारश्च परमेश्वरः (पविष्ट) अन्तःकरणं पुनाति। अत्र लोडर्थे लुङ्, अडभावश्छान्दसः। (अश्वम्) प्राणं च (सृजत्) ऊर्ध्वारोहणाय प्रेरयति। सृज विसर्गे, लेटि रूपम्। (रथीः इव) यथा सारथिः (अश्वम्) रथे नियुक्तं घोटकम् (सृजत्) गन्तुं प्रेरयति तद्वत् ॥५॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥५॥
समुपासितः परमात्मसोमो योगिनश्चित्तं पवित्रीकृत्य तस्य प्राणान् योगसिद्धीः प्राप्तुम् ऊर्ध्वारोहणाय प्रेरयति ॥५॥