प꣡व꣢स्वेन्दो꣣ वृ꣡षा꣢ सु꣣तः꣢ कृ꣣धी꣡ नो꣢ य꣣श꣢सो꣣ ज꣡ने꣢ । वि꣢श्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣡षो꣢ जहि ॥४७९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्वेन्दो वृषा सुतः कृधी नो यशसो जने । विश्वा अप द्विषो जहि ॥४७९॥
प꣡व꣢꣯स्व । इ꣣न्दो । वृ꣡षा꣢꣯ । सु꣣तः꣢ । कृ꣣धी꣢ । नः꣣ । यश꣡सः꣢ । ज꣡ने꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ । ज꣣हि ॥४७९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हे (इन्दो) चन्द्रमा के समान आह्लादक और सोमवल्ली के समान रसागार परमात्मन् ! (वृषा) बादल के समान वर्षा करनेवाले आप (सुतः) हृदय में अभिषुत होकर (पवस्व) हमें पवित्र कीजिए। (जने) जनसमाज में (नः) हमें (यशसः) यशस्वी (कृधि) कीजिए। (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को और काम-क्रोधादि की द्वेषकर्त्री सेनाओं को (अप जहि) विनष्ट कीजिए ॥३॥
परब्रह्मरूप सोम से प्रवाहित होती हुई दिव्य आनन्द की धाराएँ योगसाधकों को यशस्वी और शत्रुरहित कर देती हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (इन्दो) चन्द्रवदाह्लादक सोमवल्लीव रसागार परमात्मन् ! (वृषा) पर्जन्य इव वर्षकः त्वम् (सुतः) हृदयेऽभिषुतः सन् (पवस्व) अस्मान् पुनीहि, (जने) जनसमाजे (नः) अस्मान् (यशसः) यशस्विनः। अत्र मतुबर्थीयस्य लोपः। (कृधि) कुरु। संहितायां छान्दसं दीर्घत्वम्। (विश्वाः) समस्ताः (द्विषः) द्वेषवृत्तीः कामक्रोधादीनां द्वेष्ट्रीः सेनाश्च (अपजहि) विध्वंसय ॥३॥
परब्रह्मरूपात् सोमात् प्रस्यन्दमाना दिव्यानन्दधारा योगसाधकान् कीर्तिभाजो निःसपत्नांश्च कुर्वन्ति ॥३॥