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प्र꣡ सोमा꣢꣯सो मद꣣च्यु꣢तः꣣ श्र꣡व꣢से नो म꣣घो꣡ना꣢म् । सु꣣ता꣢ वि꣣द꣡थे꣢ अक्रमुः ॥४७७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र सोमासो मदच्युतः श्रवसे नो मघोनाम् । सुता विदथे अक्रमुः ॥४७७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । म꣣दच्यु꣡तः꣢ । म꣣द । च्यु꣡तः꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯से । नः꣣ । मघो꣡ना꣢म् । सु꣣ताः꣢ । वि꣣द꣡थे꣢ । अ꣣क्रमुः ॥४७७॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 477 | (कौथोम) 5 » 2 » 5 » 1 | (रानायाणीय) 5 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में दिव्य आनन्दरसों का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुताः) रसागार परमात्मा से अभिषुत, (मदच्युतः) उत्साहवर्षी (सोमासः) दिव्य आनन्द-रस (मघोनाम्) हम ऐश्वर्यवानों के (श्रवसे) यश के लिए (विदथे) हमारे जीवन-यज्ञ में (प्र अक्रमुः) व्याप्त हो रहे हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा के साथ योग से जो दिव्य आनन्दरस प्राप्त होता है वह मानव के सम्पूर्ण जीवन-यज्ञ में व्याप्त होकर उसे यशस्वी बनाता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ दिव्यानन्दरसान् वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुताः) रसागारात् परमात्मनः अभिषुताः (मदच्युतः) उत्साहवर्षिणः (सोमासः) दिव्यानन्दरसाः (मघोनाम्) ऐश्वर्यवताम् (नः) अस्माकम् (श्रवसे) यशसे (विदथे) अस्माकं जीवनयज्ञे। विदथ इति यज्ञनाम। निघं० ३।१७। (प्र अक्रमुः) प्रकर्षेण पदं निदधति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मना सह योगेन यो दिव्यानन्दरसः प्राप्यते स मानवस्य समग्रं जीवनयज्ञमभिव्याप्तं तं यशस्विनं करोति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।३२।१, ‘मघोनाम्’ इत्यत्र ‘मघोनः’ इति पाठः। साम० ७६९।