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अ꣡सा꣢व्य꣣ꣳशु꣡र्मदा꣢꣯या꣣प्सु꣡ दक्षो꣢꣯ गिरि꣣ष्ठाः꣢ । श्ये꣣नो꣢꣫ न योनि꣣मा꣡स꣢दत् ॥४७३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

असाव्यꣳशुर्मदायाप्सु दक्षो गिरिष्ठाः । श्येनो न योनिमासदत् ॥४७३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡सा꣢꣯वि । अँ꣣शुः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । अ꣣प्सु꣢ । द꣡क्षः꣢꣯ । गि꣣रिष्ठाः꣢ । गि꣣रि । स्थाः꣢ । श्ये꣣नः꣢ । न । यो꣡नि꣢꣯म् । अ । अ꣣सदत् ॥४७३॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 473 | (कौथोम) 5 » 2 » 4 » 7 | (रानायाणीय) 5 » 1 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में आनन्दरस का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(गिरिष्ठाः) पर्वत पर स्थित, (दक्षः) बलप्रद (अंशुः) सोम ओषधि, जैसे (अप्सु) जलों में (असावि) अभिषुत की जाती है, वैसे ही (गिरिष्ठाः) पर्वत के समान उन्नत परब्रह्म में स्थित, (दक्षः) आत्मबल को बढ़ानेवाला (अंशुः) आनन्द-रस (मदाय) हर्ष के लिए (अप्सु) मेरे प्राणों वा कर्मों में (असावि) मेरे द्वारा अभिषुत किया गया है। (श्येनः न) बाज पक्षी, जैसे (योनिम्) अपने घोंसले को प्राप्त होता है, वैसे ही यह आनन्दरस (योनिम्) मेरे हृदय-गृह में (आ असदत्) आकर स्थित हो गया है ॥७॥ इस मन्त्र में पूर्वार्द्ध में श्लिष्ट व्यङ्ग्योपमा तथा उत्तरार्ध में वाच्योपमा अलङ्कार है ॥७॥

भावार्थभाषाः -

जैसे बाज आदि पक्षी सायंकाल अपने आवासभूत वृक्ष पर आ जाते हैं, वैसे ही परब्रह्म के पास से झरता हुआ आनन्द-रस हृदय-प्रदेश में आता है और जैसे सोमलता का सोमरस वसतीवरी नामक पात्र में स्थित जल में अभिषुत किया जाता है, वैसे ही आनन्द-रस स्तोता के प्राणों और कर्मों में अभिषुत होता है ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथानन्दरसो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(गिरिष्ठाः) पर्वते स्थितः। गिरौ तिष्ठतीति गिरिष्ठाः ‘आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। अ० ३।२।७४’ इति विच् प्रत्ययः। (दक्षः) बलप्रदः (अंशुः) सोमौषधिः। अंशुः शमष्टमात्रो भवति, अननाय शं भवतीति वा। निरु० २।५। यथा (अप्सु) उदकेषु (असावि) सूयते, तथा (गिरिष्ठाः) पर्वतवदुन्नते परब्रह्मणि विद्यमानः (दक्षः) आत्मबलवर्द्धकः (अंशुः) आनन्दरसः (मदाय) हर्षाय (अप्सु) मम प्राणेषु कर्मसु च (असावि) मया अभिषुतोऽस्ति। (श्येनः न) श्येनपक्षी यथा (योनिम्) स्वनीडं प्राप्नोति, तथा एष आनन्दरसः (योनिम्) मम हृदयमन्दिरम् (आ असदत्) आगतोऽस्ति ॥७॥ अत्र पूर्वार्द्धे श्लेषमूलो व्यङ्ग्योपमालङ्कारः। उत्तरार्द्धे वाच्योपमा ॥७॥

भावार्थभाषाः -

यथा श्येनादयः पक्षिणः सायंकाले स्वस्वावासभूतं वृक्षं प्रत्यागच्छन्ति तथैव परब्रह्मणः सकाशान्निर्झरन्नानन्दरसो हृदयप्रदेशमभ्यागच्छति। यथा च सोमो वसतीवर्याख्यपात्रस्थे जलेऽभिषूयते तथाऽऽनन्दरसः स्तोतुः प्राणेषु कर्मसु च ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६२।४, साम० १००८।