वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

य꣢स्ते꣣ म꣢दो꣣ व꣡रे꣢ण्य꣣स्ते꣡ना꣢ पव꣣स्वा꣡न्ध꣢सा । दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥४७०॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

यस्ते मदो वरेण्यस्तेना पवस्वान्धसा । देवावीरघशꣳसहा ॥४७०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः꣢ । ते꣣ । म꣡दः꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ण्यः । ते꣡न꣢꣯ । प꣣वस्व । अ꣡न्ध꣢꣯सा । दे꣣वावीः꣢ । दे꣣व । अवीः꣢ । अ꣣घशँसहा꣢ । अ꣢घशँस । हा꣢ ॥४७०॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 470 | (कौथोम) 5 » 2 » 4 » 4 | (रानायाणीय) 5 » 1 » 4


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा-रूप सोम से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवित्रतादायक परमात्म-सोम ! (यः ते) जो तेरा (वरेण्यः) वरणीय (मदः) आनन्द-रस है, (तेन अन्धसा) उस रस के साथ (पवस्व) प्रवाहित हो, और प्रवाहित होकर (देवावीः) सन्मार्ग में प्रवृत्त करने के द्वारा मन, इन्द्रिय आदि देवों का रक्षक तथा (अघशंसहा) पापप्रशंसक भावों का विनाशक बन ॥४॥

भावार्थभाषाः -

रसनिधि परमात्मा की उपासना से जो आनन्दरस प्राप्त होता है, उससे शरीर के सब मन, इन्द्रियाँ आदि कुटिल मार्ग को छोड़कर सरलगामी बन जाते हैं और पापप्रशंसक भाव पराजित हो जाते हैं ॥४॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मसोमः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवित्रतादायक परमात्मसोम ! (यः ते) यस्तव (वरेण्यः) वरणीयः (मदः) आनन्दरसः अस्ति (तेन अन्धसा) तेन रसेन। तेना इति संहितायां छान्दसो दीर्घः। (पवस्व) प्रवाहितो भव। प्रवाहितो भूत्वा च (देवावीः) मन-इन्द्रियादीनां देवानां सन्मार्गप्रवर्तनेन रक्षकः। ‘अवितॄस्तृतन्त्रिभ्यः’ उ० ३।१५८ इति अव धातोः ई प्रत्यये अवी इति सिध्यति। देवानाम् अवीः देवावीः। (अघशंसहा) पापप्रशंसकानां भावानां हन्ता च भवेति शेषः ॥४॥

भावार्थभाषाः -

रसनिधेः परमात्मन उपासनेन य आनन्दरसः प्राप्यते तेन शरीरस्य सर्वाणि मनइन्द्रियादीनि वक्रपथं विहाय ऋजुगामीनि जायन्ते पापप्रशंसका भावाश्च पराजीयन्ते ॥४॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६१।१९, साम० ८१५।