वृ꣡षा꣢ पवस्व꣣ धा꣡र꣢या म꣣रु꣡त्व꣢ते च मत्स꣣रः꣡ । वि꣢श्वा꣣ द꣡धा꣢न꣣ ओ꣡ज꣢सा ॥४६९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वृषा पवस्व धारया मरुत्वते च मत्सरः । विश्वा दधान ओजसा ॥४६९॥
वृ꣡षा꣢꣯ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । म꣣रु꣡त्व꣢ते । च꣣ । मत्सरः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द꣡धा꣢꣯नः । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥४६९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः सोमरस के धाराप्रवाह का आह्वान है।
हे परमात्म-सोम ! (वृषा) अध्यात्म-संपत्ति की वर्षा करनेवाला तू (धारया) धारा-रूप में (पवस्व) प्रवाहित हो, (मरुत्वते च) और प्राणों के सहचर आत्मा के लिए (मत्सरः) आनन्ददायक हो। (ओजसा) अपने ओज से (विश्वा) सब आत्मा, मन, बुद्धि आदियों को (दधानः) धारण करनेवाला बन ॥३॥
जब प्राणायाम-साधन और ध्यान के द्वारा रसनिधि परमेश्वर से धारारूप में आनन्द-रस का सन्दोह प्रस्रुत होता है, तब शरीर-राज्य के आत्मा, मन, बुद्धि आदि सभी अङ्ग तृप्त हो जाते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि सोमरसस्य धाराप्रवाहमाकाङ्क्षते।
हे परमात्मसोम ! (वृषा) अध्यात्मसंपद्वर्षकस्त्वम् (धारया) धारारूपेण (पवस्व) प्रवह, (मरुत्वते च) प्राणसहचराय जीवात्मने च (मत्सरः) आनन्दस्रावको भवेति शेषः। मदम् आनन्दं सारयतीति मत्सरः२। “मत्सरः सोमो, मन्दतेस्तृप्तिकर्मणः” इति यास्कः। निरु० २।५। किञ्च (ओजसा) बलेन (विश्वा) विश्वानि आत्ममनोबुद्ध्यादीनि (दधानः) धारयन् भवेति शेषः ॥३॥
यदा प्राणायामसाधनेन, ध्यानेन च रसनिधेः परमेश्वराद् धारारूपेणानन्दरससंदोहः प्रस्रवति तदा शरीरराज्यस्यात्ममनो- बुद्ध्यादीनि सर्वाण्येवाङ्गानि तृप्यन्ति ॥३॥