उ꣣च्चा꣡ ते꣢ जा꣣त꣡मन्ध꣢꣯सो दि꣣वि꣡ सद्भूम्या द꣢꣯दे । उ꣣ग्र꣢꣫ शर्म꣣ म꣢हि꣣ श्र꣡वः꣢ ॥४६७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्र शर्म महि श्रवः ॥४६७॥
उ꣣च्चा꣢ । उ꣣त् । चा꣢ । ते꣣ । जात꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । दि꣣वि꣢ । सत् । भू꣡मि꣢꣯ । आ । द꣣दे । उग्र꣢म् । श꣡र्म꣢ । म꣡हि꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ ॥४६७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में ऊपर से नीचे की ओर सोम का प्रवाह वर्णित है।
हे पवमान सोम ! पवित्रकर्ता रसागार परमेश्वर ! (ते) तेरा (अन्धसः) आनन्दरस का (जातम्) समूह (उच्चा) उच्च है, (दिवि सत्) प्रकाशमान आनन्दमय कोश में विद्यमान उसको (भूमि) भूमि अर्थात् भूमि पर स्थित मनुष्य (आददे) ग्रहण करता है। उस आनन्दरस से (उग्रं शर्म) तीव्र कल्याण, और (महि श्रवः) महान् यश, प्राप्त होता है ॥१॥
जैसे ऊपर अन्तरिक्ष में विद्यमान बादल के रस को अथवा चन्द्रमा की चाँदनी के रस को ग्रहण कर भूमि सस्यश्यामला हो जाती है, वैसे ही उच्च आनन्दमयकोश में अभिषुत होते हुए ब्रह्मानन्द-रस का पान कर सामान्य मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमम् उपरिष्टादधः सोमः प्रवहतीत्याह।
हे पवमान सोम ! पवित्रकर्तः रसागार परमेश्वर ! (ते) तव (अन्धसः) आनन्दरसस्य (जातम्) समूहः (उच्चा) उच्चम् अस्ति। (दिवि सत्) द्योतमाने आनन्दमयकोशे विद्यमानं तत् (भूमि) भूमिष्ठो जनः। अत्र ‘सुपां सुलुक्’ इति विभक्तेर्लुक्। (आददे) गृह्णाति। तेन अन्धसा आनन्दरसेन (उग्रं शर्म) प्रबलं कल्याणम् (महि श्रवः) महद् यशश्च, प्राप्यते इति शेषः ॥१॥२
उपर्यन्तरिक्षे विद्यमानं पर्जन्यरसं चन्द्रमसः सौम्यप्रकाशरूपं रसं वा गृहीत्वा यथा भूमिः सस्य-श्यामला जायते, तथैवानन्दमयकोशेऽभिषूयमाणं ब्रह्मानन्दरसं पीत्वा सामान्यो जनः कृतार्थतां भजते ॥१॥