अ꣡चे꣢त्य꣣ग्नि꣡श्चिकि꣢꣯तिर्हव्य꣣वाड्न꣢꣫ सु꣣म꣡द्र꣢थः ॥४४७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अचेत्यग्निश्चिकितिर्हव्यवाड्न सुमद्रथः ॥४४७॥
अ꣡चे꣢꣯ति । अ꣣ग्निः꣢ । चि꣡कि꣢꣯तिः । ह꣣व्यवा꣡ट् । ह꣣व्य । वा꣢ट् । न । सु꣣म꣡द्र꣢थः । सु꣣म꣢त् । र꣣थः ॥४४७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आदि की तीन ऋचाएँ अग्नि देवता की हैं। प्रथम ऋचा में अग्नि नाम से परमात्मा का वर्णन है।
(अग्निः) अग्रनेता परमेश्वर (अचेति) हमसे जान लिया या अनुभव कर लिया गया है, जो (चिकितिः) सर्वज्ञ, तथा (सुमद्रथः) श्रेष्ठ विमानादि रथों में प्रयुक्त किये जानेवाले (हव्यवाड् न) विद्युत् रूप अग्नि के समान (सुमद्रथः) श्रेष्ठ शरीर-रथों को या वेगवान् सूर्य, चन्द्र, भूगोल आदियों को रचनेवाला है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे परमात्मा का सबको साक्षात्कार करना चाहिए, वैसे ही विद्युत् रूप अग्नि को भी जानना चाहिए और उसे जानकर समाचार भेजने, विमानादि यानों को चलाने आदि के कार्य सिद्ध करने चाहिएँ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्राद्यास्तिस्रोऽग्निदेवताकाः। प्रथमायामग्निनाम्ना परमात्मानं वर्णयति।
(अग्निः) अग्रणीः परमेश्वरः (अचेति) अस्माभिः अज्ञायि, अनुभूतः इत्यर्थः, यः (चिकितिः२) सर्वज्ञः। अत्र किती संज्ञाने धातोः ‘किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्’ अ० ३।२।१७१ वा० इति किन् प्रत्ययः लिड्वच्च। नित्त्वादाद्युदात्तः। किञ्च, यः (सुमद्रथः३) सुमन्तः शोभनाः रथाः विमानादियानानि यस्मात् सः (हव्यवाड् न) विद्युदग्निः इव (सुमद्रथः) सुमन्तः श्रेष्ठाः रथाः शरीररथाः, रंहणशीलाः सूर्यचन्द्रभूगोलादयो वा यस्मात् तादृशः वर्तते ॥१॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥
यथा परमात्मा सर्वैः साक्षात्करणीयस्तथैव विद्युदग्निरपि ज्ञेयः, ज्ञात्वा च तं शिल्पोन्नत्या समाचारप्रेषणविमानादियानचालन- प्रभृतीनि कार्याणि करणीयानि ॥१॥