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आ꣡ या꣢हि꣣ व꣡न꣢सा स꣣ह꣡ गाव꣢꣯ सचन्त वर्त꣣निं꣡ यदूध꣢꣯भिः ॥४४३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ याहि वनसा सह गाव सचन्त वर्तनिं यदूधभिः ॥४४३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । या꣣हि । व꣡न꣢꣯सा । स꣣ह꣢ । गा꣡वः꣢꣯ । स꣣चन्त । वर्त्तनि꣢म् । यत् । ऊ꣡ध꣢꣯भिः ॥४४३॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 443 | (कौथोम) 5 » 2 » 1 » 7 | (रानायाणीय) 4 » 10 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र का देवता उषा है। उषा के नाम से जगन्माता का आह्वान किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे उषा के समान तेजोमयी जगन्माता ! तू (वनसा सह) अपने संभजनीय तेज के साथ (आ याहि) आ, मेरे हृदय में प्रादुर्भूत हो, (यत्) जब (गावः) वेदरूपिणी गौएँ (ऊधभिः) ज्ञानरस से भरे मन्त्ररूप ऊधसों के साथ (वर्तनिम्) मेरे आत्मारूप दोहनगृह में (सचन्त) पहुँचें ॥७॥ इस मन्त्र में उपमानों द्वारा उपमेयों के निगरण होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥७॥

भावार्थभाषाः -

उषा का प्रादुर्भाव होने पर जैसे घड़े के समान विशाल ऊधसवाली गौएँ दूध देने के लिए दोहनगृह को प्राप्त होती हैं, वैसे ही जगन्माता के प्रादुर्भूत होने पर ज्ञानरस से पूर्ण वेदरूपिणी गौएँ अपना ज्ञानरूप दूध देने के लिए स्तोता के आत्मा में पहुँचती हैं ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ उषा देवता। उषोनाम्ना जगन्मातरमाह्वयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे उषः उषर्वत् तेजोमयि जगन्मातः ! त्वम् (वनसा सह) संभजनीयेन तेजसा साकम्। वनम् इति रश्मिनामसु पठितम्। निघं० १।५। वन षण सम्भक्तौ, असुन्, नित्त्वादाद्युदात्तत्वम्। (आ याहि) आगच्छ, मदीये हृदये आविर्भव, (यत्) यदा (गावः) वेदरूपाः धेनवः (ऊधभिः) ज्ञानरसपूर्णैः मन्त्रात्मकैः आपीनैः सहिताः (वर्तनिम्) मम आत्मरूपं दोहनगृहम् (सचन्त) सेवन्ताम्। सिषक्तु सचते इति सेवमानस्य इति यास्कः। निरु० ३।२१ ॥७॥ अत्र उपमानैरुपमेयानां निगरणादतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥७॥

भावार्थभाषाः -

उषसः प्रादुर्भावे यथा घटोध्न्यो धेनवो पयःप्रदानाय दोहनगृहमुपतिष्ठन्ति, तथैव जगन्मातुः प्रादुर्भावे ज्ञानरसपूर्णा वेदवाग्रूपा गावो ज्ञानरसप्रदानाय स्तोतुरात्मानमुपतिष्ठन्ति ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० १०।१७२।१।