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ए꣣ष꣢ ब्र꣣ह्मा꣢꣫ य ऋ꣣त्वि꣢य꣣ इ꣢न्द्रो꣣ ना꣡म꣢ श्रु꣣तो꣢ गृ꣣णे꣢ ॥४३८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एष ब्रह्मा य ऋत्विय इन्द्रो नाम श्रुतो गृणे ॥४३८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए꣣षः꣢ । ब्र꣣ह्मा꣢ । यः । ऋ꣣त्वि꣡यः꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ना꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तः꣢ । गृ꣣णे꣢ ॥४३८॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 438 | (कौथोम) 5 » 2 » 1 » 2 | (रानायाणीय) 4 » 10 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा का वर्णन किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषः) यह मेरे द्वारा अनुभव किया जाता हुआ परमेश्वर (ब्रह्मा) ज्ञान, गुण, कर्म आदि से सर्वतोवृद्ध होने के कारण ब्रह्मा कहलाता है, (यः ऋत्वियः) जिसकी पूजा की ऋतु सदा ही रहती है, और जो (इन्द्रो नाम श्रुतः) इन्द्र नाम से प्रसिद्ध है, उसकी मैं (गृणे) स्तुति करता हूँ ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर सब दृष्टियों से वृद्ध, सब दृष्टियों से भद्र और सब ऋतुओं में उपासनीय है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रं परमात्मानं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषः) अयं मयाऽनुभूयमानः परमेश्वरः (ब्रह्मा) ज्ञानगुणकर्मादिना परिवृढत्वात् ब्रह्मा वर्तते। ब्रह्मा परिवृढः श्रुततः, ब्रह्म परिवृढं सर्वतः। निरु० १।८। (यः ऋत्वियः२) यः सर्वदा प्राप्तकालः, ऋतौ ऋतौ उपास्यः इति यावत्। ऋतुः प्राप्तोऽस्य। तदस्य प्राप्तमित्यर्थे ‘छन्दसि घस्। अ० ५।१।१०६’ इत्यनेन घस् प्रत्ययः। यश्च (इन्द्रो नाम श्रुतः) इन्द्र इति नाम्ना प्रसिद्धः वर्वर्त्ति। तम् अहम् (गृणे) स्तौमि ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरः सर्वतो वृद्धः, सर्वतो भद्रः सर्वऋतूपास्यश्च वर्तते ॥२॥

टिप्पणी: १. साम० १७६८। २. ऋत्वियः ऋतुषु काले-काले प्रादुर्भवन्—इति भ०। ऋतौ वसन्तादिसमये भवः—इति सा०।