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वि꣡श्व꣢तोदावन्वि꣣श्व꣡तो꣢ न꣣ आ꣡ भ꣢र꣣ यं꣢ त्वा꣣ श꣡वि꣢ष्ठ꣣मी꣡म꣢हे ॥४३७

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स्वर-रहित-मन्त्र

विश्वतोदावन्विश्वतो न आ भर यं त्वा शविष्ठमीमहे ॥४३७

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि꣡श्व꣢꣯तोदावन् । वि꣡श्व꣢꣯तः । दा꣣वन् । विश्व꣡तः꣢ । नः꣢ । आ꣢ । भ꣣र । य꣢म् । त्वा꣣ । श꣡वि꣢꣯ष्ठम् । ई꣡म꣢꣯हे ॥४३७॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 437 | (कौथोम) 5 » 2 » 1 » 1 | (रानायाणीय) 4 » 10 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में इन्द्र से धनादि की याचना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (विश्वतोदावन्) सब ओर दान करनेवाले परमात्मन् वा राजन् ! आप (विश्वतः) सब ओर से (नः) हमारे लिए (आ भर) विद्या, धन, बल आदि लाइए, (यम्) जिन (शविष्ठम्) बलिष्ठ (त्वा) आपसे, हम (ईमहे) याचना कर रहे हैं ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थ-श्लेष अलङ्कार, तथा ‘विश्वतो’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास अलङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमेश्वर हमारे लिए वेदज्ञान, आत्मबल, देहबल तथा सूर्य, वायु, पृथिवी, सुवर्ण आदि धन देता है, वैसे ही राजा भी राष्ट्र में निरक्षरों को विद्या, निर्बलों को बल और निर्धनों को धन प्रदान करे ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्राद्ये मन्त्रे इन्द्रो धनादिकं याच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (विश्वतोदावन्) सर्वतो दानकर्तः इन्द्र परमात्मन् राजन् वा ! विश्वतस्पूर्वाद् ददातेः ‘आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। अ० ३।२।७४’ इति वनिप् प्रत्ययः। त्वम् (विश्वतः) सर्वतः (नः) अस्मभ्यम्, (आ भर) विद्याधनबलादिकम् आहर, (यम् शविष्ठम्) बलिष्ठम् (त्वा) त्वाम्, वयम् (ईमहे) याचामहे। ईमहे इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९ ॥१॥ अत्र अर्थश्लेषः, ‘विश्वतो’ इत्यस्यावृत्तौ च लाटानुप्रासोऽलङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा परमेश्वरोऽस्मभ्यं वेदज्ञानम् आत्मबलं देहबलं सूर्यवायुपृथिवीहिरण्यादिकं धनं च प्रयच्छति तथैव नृपतिरपि राष्ट्रे निरक्षरेभ्यो विद्यां निर्बलेभ्यो बलं निर्धनेभ्यश्च धनं प्रदद्यात् ॥१॥