प꣢र्यू꣣ षु꣡ प्र ध꣢꣯न्व꣣ वा꣡ज꣢सातये꣣ प꣡रि꣢ वृ꣣त्रा꣡णि꣢ स꣣क्ष꣡णिः꣢ । द्वि꣣ष꣢स्त꣣र꣡ध्या꣢ ऋण꣣या꣡ न꣢ ईरसे ॥४२८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः । द्विषस्तरध्या ऋणया न ईरसे ॥४२८॥
प꣡रि꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । प्र । ध꣣न्व । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये । प꣡रि꣢꣯ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । स꣣क्ष꣡णिः꣢ । स꣣ । क्ष꣡णिः꣢꣯ । द्वि꣣षः꣢ । त꣣र꣡ध्यै꣢ । ऋ꣣णयाः꣢ । ऋ꣣ण । याः꣢ । नः꣢ । ईरसे ॥४२८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में अपने अन्तरात्मा और वीरपुरुष को वीरकर्म करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।
हे वीररसमय मेरे अन्तरात्मन् अथवा वीर पुरुष ! तू (वाजसातये) संग्राम के लिए अर्थात् शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिए (उ सु) भली-भाँति (परि प्र धन्व) चारों ओर प्रयाण कर, (सक्षणिः) हिंसक होकर तू (वृत्राणि) आच्छादक पापों पर (परि) चारों ओर से आक्रमण कर। (ऋणयाः) ऋणों को चुकानेवाला होकर तू (द्विषः) लोभ आदि द्वेषियों को (तरध्यै) पार करने के लिए (नः) हमें (ईरसे) प्रेरित कर ॥२॥
मनुष्यों को चाहिए कि लोभवृत्तियों को छोड़कर ऋण समय पर चुकायें और वीरता-पूर्वक शत्रुओं को पराजित करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ स्वान्तरात्मा वीरपुरुषश्च वीरकर्मकरणाय प्रोत्साह्यते।
हे (सोम) मदीय अन्तरात्मन् वीरपुरुष वा ! त्वम् (वाजसातये२) संग्रामाय, शत्रुभिः सह योद्धुमित्यर्थः। वाजसातिरिति संग्रामनाम। निघं० २।१७। वाजानां बलानां धनानां वा सातिः प्राप्तिर्यस्मिन् स वाजसातिः संग्रामः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (उ सु) सम्यक् (परि प्र धन्व) परि प्रयाहि, परितः प्रयाणं कुरु। (सक्षणिः३) क्षणिः हिंसा क्षणोतेः, तया सहितः सक्षणिः, हिंसकः त्वम् (वृत्राणि) आवरकाणि पापानि (परि) परिधन्व सर्वतः आक्रमस्व। (ऋणयाः४) ऋणानां यापयिता त्वम्। ऋणोपपदात् ण्यर्थगर्भात् या धातोः, क्विपि रूपम्। (द्विषः) लोभादीन् द्वेष्टॄन् (तरध्यै) तर्तुम्। तरतेः ‘तुमर्थे सेसेनसे अ० ३।४।९’ इति अध्यै प्रत्ययः। (नः) अस्मान् (ईरसे) प्रेरय। ईर गतौ कम्पने च धातोर्लेटि अडागमे रूपम् ॥२॥
मनुष्यैर्लोभवृत्तिं परित्यज्य ऋणानि समये प्रतियातनीयानि वीरतया शत्रवश्च पराजेतव्याः ॥२॥