सी꣡द꣢न्तस्ते꣣ व꣢यो꣣ य꣢था꣣ गो꣡श्री꣢ते꣣ म꣡धौ꣢ मदि꣣रे꣢ वि꣣व꣡क्ष꣢णे । अ꣣भि꣡ त्वामि꣢꣯न्द्र नोनुमः ॥४०७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सीदन्तस्ते वयो यथा गोश्रीते मधौ मदिरे विवक्षणे । अभि त्वामिन्द्र नोनुमः ॥४०७॥
सी꣡द꣢꣯न्तः । ते꣣ । व꣡यः꣢꣯ । य꣡था꣢꣯ । गो꣡श्री꣢꣯ते । गो । श्री꣣ते । म꣡धौ꣢꣯ । म꣣दिरे꣢ । वि꣣व꣡क्ष꣢णे । अ꣣भि꣢ । त्वाम् । इ꣣न्द्र । नोनुमः ॥४०७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पक्षी के दृष्टान्त से परमेश्वर की स्तुति का विषय वर्णित है।
हे (इन्द्र) मधुवर्षक परमेश्वर ! (वयः यथा) पक्षियों के समान अर्थात् जैसे जलचर पक्षी जलाशय में एकत्र होते हैं वैसे, हम (ते) आपके (गोश्रीते) गोदुग्ध के समान पवित्र अन्तःप्रकाश से मिश्रित, (मदिरे) हर्षजनक, (विवक्षणे) मुक्ति प्राप्त करानेवाले (मधौ) आनन्दरूप सोमरस में (सीदन्तः) समवेत होकर बैठते हुए (त्वाम् अभि) आपको लक्ष्य करके (नोनुमः) अतिशय पुनः-पुनः स्तुति करते हैं ॥९॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥९॥
जल-पक्षी जैसे जल के ऊपर मिलकर बैठते हैं और क्रें क्रें करते हैं, वैसे ही प्रेमरसघन परमात्मा के आनन्दरस में समवेत होकर उसके उपासक लोग उसे लक्ष्य कर पुनः- पुनः स्तुतिगीत गाते हैं। जैसे सोमरस में गाय का दूध मिलाया जाता है, वैसे ही परमात्मा के आनन्दरस में दिव्यप्रकाश का संमिश्रण है, यह जानना चाहिए ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पक्षिदृष्टान्तेन परमेशस्तुतिविषयमाह।
हे (इन्द्र) मधुवर्षक परमेश ! (वयः२ यथा) पक्षिण इव। वयः इति ‘वि’ शब्दस्य प्रथमाबहुवचनम्। यथा जलचराः पक्षिणो जलाशये समवेता भवन्ति तद्वदित्यर्थः, वयम् (ते) तव (गोश्रीते३) गोपयसा इव पवित्रेण अन्तःप्रकाशेन मिश्रिते (मदिरे) हर्षजनके (विवक्षणे४) मुक्तिप्रापके। वि पूर्वाद् वह धातोरिदं रूपम्। (मधौ) आनन्दरूपे सोमरसे (सीदन्तः) समवेत्य उपविशन्तः (त्वाम् अभि) त्वामभिलक्ष्य (नोनुमः) अतिशयेन पुनः पुनः स्तुमः। णु स्तुतौ धातोर्यङ्लुगन्तोऽयं प्रयोगः ॥९॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥९॥
जलपक्षिणो यथा जले संभूय तिष्ठन्ति क्रेंकारं च कुर्वन्ति तथैव प्रेमरसघनस्य परमात्मन आनन्दरसे समवेतास्तदुपासकास्तमभिलक्ष्य भूयो भूयः स्तुतिगीतानि गायन्ति। यथा सोमे गोः पयः संमिश्र्यते, तथैवात्र परमात्मन आनन्दरसे दिव्यप्रकाशस्य संमिश्रणं वर्वर्तीति बोद्धव्यम् ॥९॥