अ꣢धा꣣꣬ ही꣢꣯न्द्र गिर्वण꣣ उ꣡प꣢ त्वा꣣ का꣡म꣢ ई꣣म꣡हे꣢ ससृ꣣ग्म꣡हे꣢ । उ꣣दे꣢व꣣ ग्म꣡न्त꣢ उ꣣द꣡भिः꣢ ॥४०६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे । उदेव ग्मन्त उदभिः ॥४०६॥
अ꣡ध꣢꣯ । हि । इ꣣न्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः । उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । का꣡मे꣢꣯ । ई꣣म꣡हे꣢ । स꣣सृग्म꣡हे꣢ । उ꣣दा꣢ । इ꣣व । ग्म꣡न्त꣢꣯ । उ꣣द꣡भिः꣢ ॥४०६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।
हे (गिर्वणः) स्तुतिवाणियों से संसेवनीय (इन्द्र) परमधनी परमेश्वर ! (अध हि) इस समय, हम (कामे) मनोरथों की पूर्ति हेतु (त्वा) आपको (उप ईमहे) समीपता से प्राप्त करते हैं, तथा (ससृग्महे) आपसे संसर्ग करते हैं (उदा इव) जैसे जलमार्ग से (ग्मन्तः) जाते हुए लोग (उदभिः) जलों से संसर्ग को प्राप्त करते हैं ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘महे’ की आवृत्ति में यमक और ‘उदे, उद’ में छेकानुप्रास है ॥८॥
जैसे नदी के कम गहराईवाले जल को पैरों से चलकर और गहरे जल को तैरकर पार करते हुए लोग जल के संसर्ग को प्राप्त होते हैं और गीले हो जाते हैं, वैसे ही परमेश्वर के समीप पहुँच हम उससे संसृष्ट होकर उसके संसर्ग द्वारा प्राप्त आनन्दरस से सराबोर हो जाएँ ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरं प्रार्थयते।
हे (गिर्वणः) गीर्भिः स्तुतिवाग्भिः वननीय संभजनीय (इन्द्र) परमधन परमेश ! (अध हि) अथ खलु वयम्। ‘अधा’ इति संहितायां ‘निपातस्य च। अ० ६।३।१३६’ इत्यनेन दीर्घः। (कामे) मनोरथे निमित्ते। निमित्तसप्तम्येषा। मनोरथप्रपूर्त्यर्थमित्यर्थः। (त्वा) त्वाम् (उप ईमहे) उपगच्छामः, (ससृग्महे) संसृज्यामहे च त्वया सह। सृज विसर्गे धातोः ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लौ रूपम्। (उदा इव) यथा उदकेन, जलमार्गेण (ग्मन्तः) गच्छन्तो जनाः (उदभिः) जलैः संसृज्यन्ते तथेत्यर्थः ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘महे’ इत्यस्यावृत्तौ यमकम्, ‘उदे-उद’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥८॥
यथा नद्या गाधं जलं पद्भ्याम् अगाधं च तरणेन पारयन्तो जना जलेन संसृज्यन्ते आर्द्राश्च भवन्ति, तथैव परमेश्वरमुपगम्य वयं तेन संसृज्य तत्संसर्गप्राप्तेनानन्दरसेन क्लिद्येमहि ॥८॥