त्व꣡या꣢ ह स्विद्यु꣣जा꣢ व꣣यं꣡ प्रति꣢꣯ श्व꣣स꣡न्तं꣢ वृषभ ब्रुवीमहि । स꣣ꣳस्थे꣡ जन꣢꣯स्य꣣ गो꣡म꣢तः ॥४०३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वया ह स्विद्युजा वयं प्रति श्वसन्तं वृषभ ब्रुवीमहि । सꣳस्थे जनस्य गोमतः ॥४०३॥
त्व꣡या꣢꣯ । ह꣣ । स्वित् । युजा꣢ । व꣣य꣢म् । प्र꣡ति꣢꣯ । श्व꣣स꣡न्त꣢म् । वृ꣣षभ । ब्रुवीमहि । सँस्थे꣢ । स꣣म् । स्थे꣢ । ज꣡न꣢꣯स्य । गो꣡म꣢꣯तः ॥४०३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि इन्द्र को सहायक पाकर हम क्या करें।
हे (वृषभ) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले परमात्मन् ! (गोमतः जनस्य) ज्ञान-किरणों अथवा अध्यात्म-किरणों से युक्त आत्मा के (संस्थे) उपासना-यज्ञ में अथवा देवासुरसंग्राम में (श्वसन्तम्) हमारी हिंसा करने के लिए तैयार व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदि तथा दुःख, दौर्मनस्य आदि विघ्न-समूह का (त्वया ह स्वित्) तुझ ही (युजा) सहायक के द्वारा, हम (प्रति ब्रुवीमहि) प्रतिकार करें ॥ राज-प्रजा पक्ष में भी योजना करनी चाहिए। गोपालक प्रजाजनों की गौओं को चुराने का यदि कोई प्रयत्न करे, तो राजकीय सहायता से युद्ध में उसका प्रतिकार करना उचित है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥
अध्यात्म-प्रकाश से युक्त आत्मा को जो पुनः मोहान्धकार में डालना चाहते हैं, उनका परमेश्वर की सहायता से बलपूर्वक प्रतिरोध करना चाहिए। इसी प्रकार गो-सेवकों की गायों का वध करने की जो चेष्टा करते हैं, उन पर राजदण्ड और प्रजादण्ड गिराना चाहिए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रं सहायं लब्ध्वा वयं किं कुर्यामेत्याह।
हे (वृषभ) कामवर्षिन् परमात्मन् ! (गोमतः जनस्य) ज्ञानकिरणैः अध्यात्मकिरणैर्वा युक्तस्य जीवात्मनः (संस्थे२) उपासनायज्ञे देवासुरसंग्रामे वा। संतिष्ठन्ते हविष्प्रदानाय जना यत्र स संस्थो यज्ञः, यद्वा संतिष्ठन्ते जनाः परस्परं प्रहरणाय यत्र स संस्थः संग्रामः। (श्वसन्तम्) जिघांसन्तं व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादिकं दुःखदौर्मनस्यादिकं च विघ्नसमूहम्। श्वसितिः हन्तिकर्मा। निघं० २।१९। (त्वया ह स्वित्) त्वयैव खलु (युजा) सहायेन (वयम्) त्वदुपासकाः (प्रति ब्रुवीमहि) प्रत्युत्तरं दद्याम, प्रतिकुर्याम इत्यर्थः ॥ राजप्रजापक्षेऽपि योजनीयम्। गोमतः प्रजाजनस्य गा अपहर्तुं यदि कश्चित् प्रयतते तर्हि राजसाहाय्येन युद्धे तत्प्रतीकारो विधेयः ॥५॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥५॥
अध्यात्मप्रकाशयुक्तमात्मानं ये पुनर्मोहान्धकारे पातयितुमुद्युञ्जते ते परमेश्वरस्य साहाय्येन बलात् प्रतिरोद्धव्याः, तथैव गोसेवकानां गा हन्तुं ये चेष्टन्ते तेषामुपरि राजदण्डः प्रजादण्डश्च पातनीयः ॥५॥