आ꣡ ग꣢न्ता꣣ मा꣡ रि꣢षण्यत꣣ प्र꣡स्था꣢वानो꣣ मा꣡प꣢ स्थात समन्यवः । दृ꣣ढा꣡ चि꣢द्यमयिष्णवः ॥४०१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थात समन्यवः । दृढा चिद्यमयिष्णवः ॥४०१॥
आ꣢ । ग꣣न्ता । मा꣢ । रि꣣षण्यत । प्र꣡स्था꣢꣯वानः । प्र । स्था꣣वानः । मा꣢ । अ꣡प꣢꣯ । स्था꣣त । समन्यवः । स । मन्यवः । दृढा꣢ । चि꣣त् । यमयिष्णवः ॥४०१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र के ‘मरुतः’ देवता हैं। उन्हें सम्बोधन करके कहा गया है।
प्रथम—सैनिकों के पक्ष में। युद्ध उपस्थित होने पर राष्ट्र के सैनिकों को पुकारा जा रहा है। हे (प्रस्थावानः) रण-प्रस्थान करनेवाले वीर सैनिको ! तुम शत्रुओं से युद्ध करने के लिए (आ गन्त) आओ, न आकर (मा रिषण्यत) राष्ट्र की क्षति मत करो। हे (समन्यवः) मन्युवालो ! हे (दृढा चित्) दृढ रिपुदलों को भी (यमयिष्णवः) रोकने में समर्थ वीरो ! तुम (मा अपस्थात) युद्ध से अलग मत रहो ॥ द्वितीय—प्राणों के पक्ष में। पूरक-कुम्भक-रेचक आदि की विधि से प्राणायाम का अभ्यास करता हुआ योगसाधक प्राणों को सम्बोधित कर रहा है। हे (प्रस्थावानः) प्राणायाम के लिए प्रस्थित मेरे प्राणो ! तुम (आ गन्त) रेचक प्राणायाम से बाहर जाकर पूरक प्राणायाम के द्वारा पुनः अन्दर आओ, (मा रिषण्यत) हमारे स्वास्थ्य की हानि मत करो। हे (समन्यवः) तेजस्वी प्राणो !(दृढा चित्) दृढ़ता से शरीर में बद्ध भी रोग, मलिनता आदियों को (यमयिष्णवः) दूर करने में समर्थ प्राणो ! तुम (मा अपस्थात) शरीर से बाहर ही स्थित मत हो जाओ, किन्तु पूरक, कुम्भक, रेचक और स्तम्भवृत्ति के व्यापारों द्वारा मेरी प्राणसिद्धि कराओ। भाव यह है कि हम प्राणायाम से विरत न होकर नियम से उसके अभ्यास द्वारा प्रकाश के आवरण का क्षय करके धारणाओं में मन की योग्यता सम्पादित करें ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
शत्रुओं से राष्ट्र के आक्रान्त हो जाने पर वीर योद्धाओं को चाहिए कि शत्रुओं को दिशाओं में इधर-उधर भगाकर या धराशायी करके राष्ट्र की कीर्ति को दिग्दिगन्त में फैलायें। इसी प्रकार रोग, मलिनता आदि से शरीर के आक्रान्त होने पर प्राण पूरक, कुम्भक आदि के क्रम से शरीर के स्वास्थ्य का विस्तार कर आयु को लम्बा करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ मरुतो देवताः। तान् सम्बोधयन्नाह।
प्रथमः—सैनिकपरः। उपस्थिते युद्धे राष्ट्रवीरा आहूयन्ते। हे (प्रस्थावानः) रणप्रस्थानकारिणः मरुतः वीराः सैनिकाः। प्र पूर्वात् तिष्ठतेः ‘आतो मनिन् क्वनिब्वनिपश्च। अ० ३।२।७४’ इति वनिप् प्रत्ययः। यूयम् (आ गन्त) आगच्छत शत्रुभिः योद्धुम्, अनागमनेन (मा रिषण्यत) स्वराष्ट्रस्य क्षतिं न कुरुत। ‘दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। अ० ७।४।३६’ इति रिष्टस्य रिषण्भावो निपात्यते क्यचि परतः। हे (समन्यवः) मन्युयुक्ताः ! हे (दृढाचित्) दृढान्यपि रिपुदलानि (यमयिष्णवः) उपरमयितुं समर्था वीराः ! यूयम् (मा अपस्थात) नैव युद्धाद् दूरे तिष्ठत। दृढा इत्यत्र ‘शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७०’ इति शसः शेर्लोपः। प्रस्थावानः, समन्यवः, यमयिष्णवः इति त्रीण्यपि सम्बोधनान्तानि पदानि। चरमयोर्द्वयोरामन्त्रितस्वरो निघातः सम्पद्यते, प्रथमस्य तु पादादित्वात् षाष्ठेन आद्युदात्तत्वम् ॥ अथ द्वितीयः—प्राणपरः। पूरककुम्भकरेचकादिविधिना प्राणायाममभ्यस्यन् योगसाधकः प्राणान् सम्बोधयन्नाह। हे (प्रस्थावानः) प्राणायामाय प्रस्थिताः मदीयाः प्राणाः ! यूयम् (आ गन्त) रेचकप्राणायामेन बहिर्गताः सन्तः पूरकविधिना पुनः आयात, (मा रिषण्यत) नैव स्वास्थ्यहानिं कुरुत। हे (समन्यवः) सतेजस्काः, हे (दृढा चित्) शरीरे दृढं बद्धान्यपि रोगमालिन्यादीनि (यमयिष्णवः) उपरमयितुं क्षमाः प्राणाः ! (मा अपस्थात) शरीराद् बहिरेव स्थिता न भवत, किन्तु पूरक-कुम्भक-रेचक-स्तम्भवृत्तिव्यापारद्वारेण मम प्राणसिद्धिं कारयत। वयं प्राणायामाद् विरता न भूत्वा नियमेन तदभ्यासद्वारा प्रकाशावरणक्षयं विधाय धारणासु मनसो योग्यतां सम्पादयेमेति भावः२ ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
राष्ट्रे शत्रुभिराक्रान्ते सति वीरैर्योद्धृभिः शत्रून् कान्दिशीकान् विद्राव्य धराशायिनो वा विधाय राष्ट्रस्य कीर्तिर्दिग्दिगन्तेषु विस्तारणीया। तथैव शरीरे रोगमालिन्यादिभिरुपद्रुते सति प्राणाः पूरककुम्भकादिक्रमेण शरीरस्य स्वास्थ्यं विस्तार्य दीर्घमायुः प्रतन्वन्तुतराम् ॥३॥