तु꣣चे꣡ तुना꣢꣯य꣣ त꣢꣫त्सु नो꣣ द्रा꣡घी꣢य꣣ आ꣡यु꣢र्जी꣣व꣡से꣢ । आ꣡दि꣢त्यासः समहसः कृ꣣णो꣡त꣢न ॥३९५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तुचे तुनाय तत्सु नो द्राघीय आयुर्जीवसे । आदित्यासः समहसः कृणोतन ॥३९५॥
तु꣣चे꣢ । तु꣡ना꣢꣯य । तत् । सु । नः꣣ । द्रा꣡घी꣢꣯यः । आ꣡युः꣢꣯ । जी꣣व꣡से꣢ । आ꣡दि꣢꣯त्यासः । आ । दि꣣त्यासः । समहसः । स । महसः कृणो꣡त꣢न । कृ꣣णो꣡त꣢ । न꣣ ॥३९५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र के आदित्य देवता हैं। इसमें दीर्घतर आयु की प्रार्थना की गयी है।
हे (समहसः) तेजस्वी (आदित्यासः) आदित्य के समान ज्ञानप्रकाश से भासमान ब्रह्मवित् ब्राह्मणो ! अथवा हे मेरे प्राणो ! तुम (तुचे) सन्तान के लिए, (तुनाय) धन के लिए और (जीवसे) उत्कृष्ट जीवन के लिए (तत्) उस, अन्य प्राणियों से विलक्षण (नः आयुः) हमारी आयु को (द्राघीयः) अधिक लम्बी (सु कृणोतन) सुचारू रूप से कर दो ॥ सन्तान दो प्रकार की होती है, भौतिक और मानस। पुत्र, पुत्री आदि भौतिक तथा नवीन ज्ञान-विज्ञानादि मानस सन्तान कहलाती है। धन भी द्विविध होता है, भौतिक और आध्यात्मिक। चाँदी, सोना, कपड़ा, धान्य, मुद्रा आदि भौतिक धन तथा अहिंसा, सत्य, न्याय, योगसिद्धि आदि आध्यात्मिक धन कहाता है। उत्कृष्ट जीवन भी दो प्रकार का होता है, बाह्य और आध्यात्मिक। भौतिक सुख-सम्पदा आदि से पूर्ण जीवन बाह्य और अध्यात्म-पथ का पथिक जीवन आध्यात्मिक कहाता है। यह सब हमारे लिए सुलभ हो, एतदर्थ लम्बी आयु की प्रार्थना की गयी है ॥५॥ इस मन्त्र में ‘तुना, तन’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है। त्, स् और न् की पृथक्-पृथक् अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥५॥
प्राणायाम से और विद्वान् ब्राह्मणों द्वारा उपदेश किये गये मार्ग का अनुसरण करने से हमारी आयु अधिक लम्बी हो सकती है। अधिक लम्बी आयु प्राप्त कर अपनी रुचि के अनुसार प्रेय-मार्ग या श्रेय-मार्ग में हमें पग रखना चाहिए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथादित्या देवताः। अत्र दीर्घतरमायुः प्रार्थ्यते।
हे (समहसः) सतेजसः (आदित्यासः) आदित्यवज्ज्ञानप्रकाशेन भासमानाः ब्रह्मविदो ब्राह्मणाः, मदीयाः प्राणाः वा ! एते खलु वादित्या यद् ब्राह्मणाः। तै० ब्रा० १।१।९।८। प्राणा वा आदित्याः। जै० उ० ब्रा० ४।२।९। यूयम् (तुचे) अपत्याय, तुक् इत्यपत्यनाम। निघं० २।२। (तुनाय२) धनाय। तना इति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०। अत्र अकारस्य उकारादेशश्छान्दसः। (जीवसे) उत्कृष्टजीवनाय च। जीव धातोः ‘तुमर्थे सेसेनसेअसेन्०। अ० ३।४।९’ इति तुमर्थे असे प्रत्ययः। (तत्) इतरप्राणिविशिष्टत्वेन प्रसिद्धम् (नः आयुः) अस्माकम् आयुष्यम् (द्राघीयः) दीर्घतरम् (सुकृणोतन) सुचारुरूपेण कुरुत। कृवि हिंसाकरणयोर्लोटि मध्यमबहुवचने ‘कृणुत’ इति प्राप्ते ‘तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।४५’ इति तस्य तनबादेशः३, तस्य च पित्त्वान्ङित्त्वाभावे गुणः ॥ अपत्यं तु द्विविधं, भौतिकं मानसं च। भौतिकं पुत्रदुहित्रादिरूपं, मानसं च नूतनज्ञानविज्ञानादिरूपम्। धनमपि द्विविधं, भौतिकम् आध्यात्मिकं च। रजतसुवर्णवस्त्रधान्यमुद्रादिरूपं भौतिकम्, अहिंसासत्यन्याययोगसिद्ध्यादिरूपं चाध्यात्मिकम्। उत्कृष्टजीवनमपि द्विविधं, बाह्यम् अध्यात्मं च। भौतिकसुखसम्पदादिपूर्णं बाह्यम्, अध्यात्मपथपथिकत्वरूपं च अध्यात्मम्। तदेतत्सर्वं सुलभमस्माकं स्यादित्येतदर्थं दीर्घतरम् आयुः प्रार्थ्यते ॥५॥ अत्र ‘तुना, तन’ इति छेकानुप्रासोऽलङ्कारः। तकार-सकार-नकाराणां पृथक्-पृथग् असकृदावृत्तौ च वृत्त्यनुप्रासः ॥५॥
प्राणायामेन, विपश्चिद्भिर्ब्राह्मणैरुपदिष्टस्य पथोऽनुसरणेन चास्माकमायुर्द्राघीयो भवितुमर्हति। दीर्घतरमायुष्यं प्राप्य यथारुचि प्रेयोमार्गे श्रेयोमार्गे वाऽस्माभिः पदं निधेयम् ॥५॥