स꣡खा꣢य꣣ आ꣡ शि꣢षामहे꣣ ब्र꣡ह्मेन्द्रा꣢꣯य व꣣ज्रि꣡णे꣢ । स्तु꣣ष꣢ ऊ꣣ षु꣢ वो꣣ नृ꣡त꣢माय धृ꣣ष्ण꣡वे꣢ ॥३९०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सखाय आ शिषामहे ब्रह्मेन्द्राय वज्रिणे । स्तुष ऊ षु वो नृतमाय धृष्णवे ॥३९०॥
स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । आ꣢ । शि꣣षामहे । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । व꣣ज्रि꣡णे꣢ । स्तु꣣षे । उ꣣ । सु꣢ । वः꣣ । नृ꣡त꣢꣯माय । धृ꣣ष्ण꣡वे꣢ ॥३९०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा को स्तोत्र अर्पित करने के लिए सखाओं को बुलाया जा रहा है।
हे (सखायः) मित्रो ! आओ, हम-तुम मिलकर (वज्रिणे) दुष्टों वा दुष्टवृत्तियों के प्रति दण्डधारी (इन्द्राय) जगत् के शासक परमात्मा के लिए (ब्रह्म) स्तोत्र को (आ शिषामहे) इच्छापूर्वक समर्पित करें। आगे प्रत्यक्ष स्तुति है—हे परमात्मन् ! (नृतमाय) वरिष्ठ नेता, (धृष्णवे) पापों को धर्षण करनेवाले, (वः) आपके लिए (सु स्तुषे उ) मैं भली-भाँति स्तुति करता हूँ ॥१०॥
सब मनुष्यों को चाहिए कि परस्पर मिलकर सार्वजनिक रूप से राजराजेश्वर परमात्मा के लिए उसके महिमागानसम्बन्धी स्तुतिगीत गायें ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र जगदीश्वर के महिमागानपूर्वक उसके प्रति स्तोत्र अर्पित करने की प्रेरणा होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की पाँचवीं दशति समाप्त ॥ यह चतुर्थ प्रपाठक समाप्त हुआ ॥ चतुर्थ अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मने स्तोत्रमर्पयितुं सखीनाह्वयति।
हे (सखायः) सुहृदः ! आगच्छत, यूयं वयं च संभूय (वज्रिणे) दुष्टेषु दुष्टवृत्तिषु वा दण्डधराय (इन्द्राय) जगच्छासकाय परमात्मने (ब्रह्म२) स्तोत्रम् (आशिषामहे) इच्छेम, समर्पयेमेत्यर्थः। आङः शासु इच्छायाम् इति धातोर्लेटि रूपम्। धातोरुपधाया इकारादेशश्छान्दसः। अथ प्रत्यक्षस्तुतिः—हे परमात्मन् ! (नृतमाय) नेतृतमाय, (धृष्णवे) पापानां धर्षणशीलाय (वः) तुभ्यम् (सु स्तुषे उ) सम्यक् स्तौमि खलु। स्तुषे इति स्तौतेर्लेटि उत्तमैकवचने रूपम्, मध्ये ‘सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४’ इति सिबागमः। संहितायाम् ‘ऊ’ इत्यत्र ‘इकः सुञि। अ० ६।३।१३४’ इति दीर्घः। ‘सुञः। अ० ८।३।१०७’ इति सोः षत्वम् ॥१०॥
सर्वैः सखिभिः परस्परं संभूय सार्वजनिकरूपेण राजराजेश्वराय परमात्मने तन्महिमगानपराणि स्तुतिगीतानि गेयानि ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य जगदीश्वरस्य महिमगानपूर्वकं तं प्रति स्तोत्रमर्पयितुं प्रेरणादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्द्धे पञ्चमी दशतिः ॥ समाप्तश्चायं चतुर्थः प्रपाठकः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये चतुर्थः खण्डः ॥