ए꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रा꣢य सिञ्चत꣣ पि꣡बा꣢ति सो꣣म्यं꣡ मधु꣢꣯ । प्र꣡ राधा꣢꣯ꣳसि चोदयते महित्व꣣ना꣢ ॥३८६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एन्दुमिन्द्राय सिञ्चत पिबाति सोम्यं मधु । प्र राधाꣳसि चोदयते महित्वना ॥३८६॥
आ꣢ । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सि꣣ञ्चत । पि꣡बा꣢꣯ति । सो꣣म्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । प्र । रा꣡धाँ꣢꣯सि । चो꣣दयते । महित्वना꣢ ॥३८६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र को सोममिश्रित मधु समर्पित करने की प्रेरणा की गयी है।
हे मनुष्यो ! तुम (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्त जगत्पति परमात्मा के लिए (इन्दुम्) ज्ञान-कर्म-रूप सोमरस को (आ सिञ्चत) सींचो, समर्पित करो। वह (सोम्यम्) ज्ञान-कर्म-रूप सोम से युक्त (मधु) उपासनारूप मधु को (पिबाति) पीता है। इस प्रकार पूजा किया हुआ वह, पूजक को (महित्वना) अपनी महिमा से (राधांसि) सफलताएँ (चोदयते) प्रदान करता है ॥६॥
जैसे यज्ञ में सोमरस को मधु में मिलाकर होम करते हैं, वैसे ही हमें अपने ज्ञान-कर्मरूप सोमरस को उपासनारूप मधु में मिलाकर परमेश्वर के प्रति उसका होम करना चाहिए। उससे वह अपने उपासक को बल प्रदान करके उसे सफलता की सीढ़ी पर चढ़ा देता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्राय सोममिश्रितं मधु समर्पयितुं प्रेरयति।
हे मानवाः ! यूयम् (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्ताय जगत्पतये परमात्मने (इन्दुम्) ज्ञानकर्मरूपं सोमरसम् (आ सिञ्चत) प्रक्षारयत, समर्पयत। सः (सोम्यम्) ज्ञानकर्मरूपसोममयम्। अत्र ‘सोममर्हति यः। अ० ४।४।१३७’ इति प्रकरणे ‘मये च। अ० ४।४।१३८’ इत्यनेन सोमशब्दान्मयडर्थे यः। (मधु) उपासनारूपं मधुरं माक्षिकम् (पिबाति) पिबति। पा धातोर्लेटि रूपम्। एवं पूजितः स पूजकाय (महित्वना) स्वमहिम्ना राधांसि साफल्यानि। राध संसिद्धौ धातोः असुन् प्रत्ययः। (प्र चोदयते) प्रेरयति, प्रयच्छति ॥६॥
यथा यज्ञे सोमरसं मधुनि संमिश्र्य। तस्य होमं कुर्वन्ति तथैवास्माभिः स्वकीयं ज्ञानकर्माख्यं सोमरसम् उपासनारूपे मधुनि संमिश्र्य परमेश्वराय तद्धोमः कार्यः। तेन स स्वोपासकाय बलं प्रदाय तं सफलतायाः सोपानमधिरोहयति ॥६॥