त꣡मु꣢ अ꣣भि꣡ प्र गा꣢꣯यत पुरुहू꣣तं꣡ पु꣢रुष्टु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡स्त꣢वि꣣ष꣡मा वि꣢꣯वासत ॥३८२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तमु अभि प्र गायत पुरुहूतं पुरुष्टुतम् । इन्द्रं गीर्भिस्तविषमा विवासत ॥३८२॥
त꣢म् । उ꣣ । अभि꣢ । प्र । गा꣣यत । पु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣢म् । पु꣣रुष्टुत꣢म् । पु꣣रु । स्तुत꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । त꣣विष꣢म् । आ । वि꣣वासत ॥३८२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर की महिमा गाने के लिए मनुष्यों को प्रेरित किया गया है।
हे मनुष्यो ! (तम् उ) उसी (पुरुस्तुतम्) बहुत अधिक कीर्तिगान किये गये, (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे गये जगदीश्वर को (अभि) लक्ष्य करके (प्र गायत) भली-भाँति स्तुतिगीत गाओ। (तविषम्) महान् (इन्द्रम्) उस परमैश्वर्यशाली जगत्पति की (गीर्भिः) वेदवाणियों से (आ विवासत) आराधना करो ॥२॥
अनेकों ऋषि, महर्षि, राजा आदियों से स्तुति और पूजा किये गये महान् विश्वम्भर की हमें भी क्यों नहीं स्तुति और पूजा करनी चाहिए? ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्य महिमानं गातुं जनान् प्रेरयति।
हे जनाः ! (तम् उ) तमेव (पुरुस्तुतम्) बहु गीतकीर्तिम् (पुरुहूतम्) बहुभिः आहूतम् जगदीश्वरम् (अभि) अभिलक्ष्य (प्र गायत) प्रकर्षेण स्तुतिगीतानि गायत। (तविषम्) महान्तम्। तविष इति महन्नाम। निघं० ३।३। तम् (इन्द्रम्) जगत्पतिम् (गीर्भिः) वेदवाग्भिः (आ विवासत) परिचरत, पूजयत। विवासतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५ ॥२॥
बहुभिर्ऋषिमहर्षिनृपतिप्रभृतिभिः स्तुतः पूजितश्च महान् विश्वम्भरोऽस्माभिरपि कुतो न स्तवनीयः पूजनीयश्च ॥२॥