उ꣣भे꣡ यदि꣢꣯न्द्र रो꣡द꣢सी आप꣣प्रा꣢थो꣣षा꣡ इ꣢व । म꣣हा꣡न्तं꣢ त्वा म꣣ही꣡ना꣢ꣳ स꣣म्रा꣡जं꣢ चर्षणी꣣ना꣢म् । दे꣣वी꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनद्भ꣣द्रा꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनत् ॥३७९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उभे यदिन्द्र रोदसी आपप्राथोषा इव । महान्तं त्वा महीनाꣳ सम्राजं चर्षणीनाम् । देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥३७९॥
उ꣣भे꣡इति꣢ । यत् । इ꣣न्द्र । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । आ꣣पप्रा꣡थ꣢ । आ꣣ । पप्रा꣡थ꣢ । उ꣣षाः꣢ । इ꣣व । महा꣡न्त꣢म् । त्वा꣣ । मही꣡ना꣢म् । स꣣म्रा꣡ज꣢म् । स꣣म् । रा꣡ज꣢꣯म् । च꣣र्षणीना꣢म् । दे꣣वी꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् । भद्रा꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् ॥३७९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और राजा की महिमा का वर्णन है।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) जगत्पति परमात्मन् ! (यत्) जो आप (उषाः इव) प्रभात में खिलनेवाली उषा के समान (उभे रोदसी) द्युलोक-भूलोक दोनों को अथवा आत्मा और शरीर दोनों को (आपप्राथ) प्रकाश से पूर्ण कर रहे हो अथवा यश से प्रसिद्ध कर रहे हो, उन (महीनां महान्तम्) महत्त्वशालियों में भी महत्त्वशाली, (चर्षणीनां सम्राजम्) मनुष्यों के सम्राट् (त्वा) आपको (देवी जनित्री) प्रकाशक दिव्य ऋतम्भरा प्रज्ञा (अजीजनत्)योगी के हृदय में प्रकाशित करती है, (भद्रा जनित्री) आविर्भाव करनेवाली श्रेष्ठ विवेकख्याति (अजीजनत्) योगसाधक के हृदय में आविर्भूत करती है ॥ जनन से यहाँ प्रकाशन और आविर्भाव अभिप्रेत हैं, उत्पत्ति नहीं, क्योंकि परमेश्वर अनादि है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) राजन् ! (यत्) जो आप (उषाः इव) उषा के समान (उभे रोदसी आपप्राथ) भूमि-आकाश दोनों को अपने यश से पूर्ण किये हुए हो, अथवा राष्ट्रवासी स्त्रियों-पुरुषों दोनों को विद्या के प्रकाश से पूर्ण कर रहे हो, उन (महीनां महान्तम्) महत्त्वशालियों में भी महत्त्वशाली, और (चर्षणीनाम् सम्राजम्) प्रजाओं के सम्राट् (त्वा) आपको (देवी जनित्री) दिव्य गुणोंवाली माता ने (अजीजनत्) पैदा किया है, (भद्रा जनित्री) श्रेष्ठ माता ने (अजीजनत्) पैदा किया है, इसी कारण आप इतने गुणी और भद्र हो ॥१०॥ इस मन्त्र में उपमा और श्लेष अलङ्कार हैं। पुनरुक्ति जननी और जन्य के गौरवाधिक्य को सूचित कर रही है। ‘महा, मही’ में छेकानुप्रास और ‘जनित्र्यजीजनत्’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥१०॥
उषा जैसे भूमि-आकाश को प्रकाश से परिपूर्ण करती है, वैसे जगदीश्वर उन्हें स्वरचित अग्नि, सूर्य, विद्युत्, चन्द्र, नक्षत्र आदियों के प्रकाश से और राजा प्रजारञ्जन से पैदा की हुई अपनी धवल कीर्ति से परिपूर्ण करता है ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मनो नृपतेश्च महिमानमाह।
प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) जगत्पते परमात्मन् ! (यत्) यः त्वम्। अत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति सोर्लोपः। (उषाः इव) उषर्नाम्ना ख्याता प्रभातवेलेव (उभे रोदसी) द्वे अपि द्यावापृथिव्यौ, उभौ शरीरात्मानौ वा (आपप्राथ) प्रकाशेन पूरयसि, यशसा वा प्रख्यापयसि। प्रा पूरणे, प्रथ प्रख्याने इति वा धातोर्लडर्थे लिटि मध्यमैकवचने रूपम्। तम् (महीनां महान्तम्) महत्त्वशालिनामपि महत्त्वशालिनम्, (चर्षणीनाम् सम्राजम्) मनुष्याणाम् अधीश्वरम् (त्वा) त्वां जगदीश्वरम् (देवी जनित्री) प्रकाशयित्री दिव्या ऋतम्भरा प्रज्ञा (अजीजनत्) योगिनो हृदये प्रकाशयति, (भद्रा जनित्री) आविर्भावयित्री श्रेष्ठा विवेकख्यातिः (अजीजनत्) योगसाधकस्य हृदये आविर्भावयति ॥ जननमत्र प्रकाशनमाविर्भावश्च, न तूत्पादनम्, परमेश्वरस्यानादित्वात् ॥ अथ द्वीतीयः—राजपरः। हे (इन्द्र) राजन् ! (यत्) यः त्वम् (उषाः इव) उषर्वेलेव (उभे रोदसी आ पप्राथ) उभौ अपि भूम्याकाशौ स्वयशसा पूरयसि, यद्वा द्वावपि राष्ट्रवासिनौ स्त्रीपुरुषौ ज्ञानप्रकाशेन पूरयसि। द्यौष्पितः पृथिवी मातः। ऋ० ६।५१।५ इति श्रुतेः द्यौः इत्यनेन पुरुषाः, पृथिवी इत्यनेन च स्त्रियो गृह्यन्ते। तम् (महीनां महान्तम्) महत्त्ववतामपि महत्त्ववन्तम्, (चर्षणीनाम्) मानुषीणां प्रजानाम् (सम्राजम्) अधिराजम् च (त्वा) त्वाम् राजानं (देवी जनित्री) दिव्यगुणयुक्ता माता (अजीजनत्) जनितवती, (भद्रा जनित्री) श्रेष्ठा माता (अजीजनत्) जनितवती, अत एव त्वं तादृशो गुणवान् भद्रश्चासीति भावः ॥१०॥ अत्रोपमालङ्कारः श्लेषश्च। पुनरुक्तिर्जनयित्र्याः जन्यस्य च गौरवातिशयद्योतनार्था। ‘महा, मही’ इत्यत्र छेकानुप्रासः। ‘जनित्र्यजीजनत्’ इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः ॥१०॥
उषा यथा भूम्याकाशौ स्वप्रकाशेन पूरयति तथा जगदीश्वरस्तौ स्वरचितानामग्निसूर्यविद्युच्चन्द्रनक्षत्रादीनां प्रकाशेन, राजा च प्रजारञ्जनजनितया स्वकीयधवलकीर्त्या पूरयति ॥१०॥