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अ꣣मी꣡ ये दे꣢꣯वा꣣ स्थ꣢न꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡ रो꣢च꣣ने꣢ दि꣣वः꣢ । क꣡द्ध꣢ ऋ꣣तं꣢꣫ कद꣣मृ꣢तं꣣ का꣢ प्र꣣त्ना꣢ व꣣ आ꣡हु꣢तिः ॥३६८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अमी ये देवा स्थन मध्य आ रोचने दिवः । कद्ध ऋतं कदमृतं का प्रत्ना व आहुतिः ॥३६८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣मी꣡इति꣢ । ये दे꣣वाः । स्थ꣡न꣢꣯ । स्थ । न꣣ । म꣡ध्ये꣢꣯ । आ । रो꣣चने꣢ । दि꣣वः꣢ । कत् । वः꣣ । ऋत꣢म् । कत् । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । का꣢ । प्र꣣त्ना꣢ । वः꣢ । आ꣡हु꣢꣯तिः । आ । हु꣣तिः ॥३६८॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 368 | (कौथोम) 4 » 2 » 3 » 9 | (रानायाणीय) 4 » 2 » 9


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र के देवता ‘विश्वेदेवाः’ हैं। इसमें देवों के विषय में तीन प्रश्न उठाये गये हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (देवाः) अपने-अपने विषय के प्रकाशक ज्ञानेन्द्रियरूप देवो ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) उर्ध्वस्थान सिर के (मध्ये) अन्दर (रोचने) रोचमान अपने-अपने गोलक में (आ स्थन) आकर स्थित हुए हो, अथवा, हे (देवाः) प्रकाशक सूर्यकिरणों ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) द्युलोक के (मध्ये) बीच (रोचने) दीप्तिमान् सूर्य में (आ स्थन) आकर स्थित हो, अथवा, हे (देवाः) ज्ञान के प्रकाश से युक्त तथा ज्ञान के प्रकाशक विद्वानो ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) कीर्ति से प्रकाशित राष्ट्र के (मध्ये) अन्दर (रोचने) यशस्वी पद पर (आ स्थन) नियुक्त हुए हो, उन तुमसे पूछता हूँ कि (कत्) क्या (वः) तुम्हारा (ऋतम्) सत्य है, (कत्) क्या (अमृतम्) अमरतत्त्व है, (का) और क्या (वः) तुम्हारी (प्रत्ना) पुरातन (आहुतिः) होम क्रिया है? ॥९॥

भावार्थभाषाः -

यहाँ उत्तर दिये बिना ही केवल प्रश्न करके जिज्ञासा उत्पन्न की गयी है कि इन प्रश्नों के उत्तर अपनी प्रतिभा से स्वयं दो। इन प्रश्नों के उत्तर ये हो सकते हैं। सिर में जो ज्ञानेन्द्रियरूप देव स्थित हैं, उनका ऋत है जीवात्मा में सत्यज्ञान को पहुँचाना, उनका अमृत है वास्तविक इन्द्रियतत्त्व, जो देह के साथ इन्द्रिय-गोलकों के विनष्ट हो जाने पर भी मरता नहीं, प्रत्युत सूक्ष्म शरीर में विद्यमान रहता है, उनकी सनातन आहुति है शरीररक्षारूप यज्ञ में तथा ज्ञानप्रदानरूप यज्ञ में अपना होम करना। इसी प्रकार द्युलोकस्थ सूर्य में जो किरण-रूप देव स्थित हैं, उनका ऋत है वह सत्यनियम, जिसके अनुसार प्रतिदिन सूर्योदय के साथ वे आकाश और भूमण्डल में व्याप्त होते हैं, उनका अमृत है शुद्ध मेघ-जल, जिसे वे समुद्र आदि से भाप बनाकर ऊपर ले जाते हैं, उनकी सनातन आहुति है मेघजल का पार्थिव अग्नि में होम करना, जिससे पृथिवी पर ओषधि, वनस्पति आदि उगती हैं और प्राणी जीवन धारण करते हैं, अथवा सब ग्रहोपग्रहों में अपना होम करना, जिससे पृथिवी, मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि प्रकाशित होते हैं। इसी प्रकार राष्ट्र में जो विद्या दान करनेवाले विद्वान लोग हैं, उनका ऋत है वह सत्यनिष्ठा जिसका अनुसरण कर वे विद्यादान में दत्तचित्त होते हैं; उनका अमृत है वह ज्ञान जिसे वे सत्पात्रों को देते हैं, उनकी सनातन आहुति है अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ में अपना होम करना, इत्यादि सुधी जनों को स्वयं ऊहा कर लेनी चाहिए ॥९॥ विवरणकार माधव ने यह देखकर कि इस ऋचा का ऋषि आप्त का पुत्र त्रित है और देवता ‘विश्वेदेवाः’ है, इस पर निम्नलिखित इतिहास लिखा है-आप्त ऋषि के तीन पुत्र थे, एकत, द्वित और त्रित। उन्होंने यज्ञ करने की इच्छा से यजमानों से गौएँ माँगी और पा लीं। उन्हें लेकर वे घर चल पड़े। जब वे सरस्वती नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे तब परले पार बैठे गवादक ने उन्हें देख लिया। वह उठा और सरस्वती के जलों को पार करके रात में उसने उनको डराया। जब वे डरकर भागे तब उनमें से त्रित घास-फूस और लताओं से ढके हुए एक निर्जल कुएँ में गिर पड़ा। कुएँ में गिरने का कारण अन्य कुछ लोग यह बताते हैं कि एकत और द्वित को कम गौएँ मिली थीं, त्रित को बहुत सारी मिल गयी थीं, इसलिए जान-बूझकर उन्होंने त्रित को कुएँ में धकेल दिया था। वहीं उसके मन में आया कि मैंने यज्ञ का संकल्प किया था, अब यदि बिना यज्ञ किये ही मर जाता हूँ तो मेरा कल्याण नहीं होगा, इसलिए कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि यहाँ कुएँ में पड़ा-पड़ा ही मैं सोम-पान कर लूँ। वह यह विचार कर ही रहा था कि अकस्मात् ही उसने उसी कुएँ में एक लता उतरी हुई देखी। उसने उसे लेकर और यह सोम ही है, ऐसा मन में निश्चय करके अन्य भी यज्ञ-साधनों का मन में संकल्प करके बजरी को सोम कूटने के सिल-बट्टे बनाकर उस लता को अभिषुत किया और अभिषुत करके देवों को पुकारा। पुकारे गये देवों को पुकारे जाने का कारण समझ में न आया, अतः वे आविग्न हो उठे। बृहस्पति ने भी पुकार को सुना और सुनकर वह देवों से बोला कि त्रित का यज्ञ है, वहाँ चलते हैं। तब वे सब देव वहाँ आये। उन्हें आया देखकर कुएँ से उद्धार की इच्छावाले त्रित ने उनकी स्तुति की और उन्हें उपालम्भ दिया कि तुम्हारा सत्यासत्य का विवेक नष्ट हो गया है, तुम बड़े अकृतज्ञ हो कि मुझे इस कुएँ से बाहर नहीं निकालते हो। त्रित का उपालम्भ ही प्रस्तुत ऋचा में प्रकट किया गया है, इत्यादि। यह सब कल्पना-कला का विलास है, वास्तविकता इसमें कुछ भी नहीं है, यह सुधी जन स्वयं ही समझ लें ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

विश्वेदेवाः देवताः। देवानां विषये त्रयः प्रश्ना उत्थाप्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (देवाः) स्वस्वविषयप्रकाशकाः ज्ञानेन्द्रियरूपाः देवाः ! (अमी ये) इमे ये यूयम् (दिवः) ऊर्ध्वस्थानस्य शिरोभागस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (रोचने) रोचमाने स्वस्वगोलके (आ स्थन) आगत्य स्थिताः स्थ। अत्र ‘तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।४५’ इति तनबादेशः। यद्वा, हे (देवाः) प्रकाशकाः सूर्यकिरणाः ! (अमी ये) इमे ये यूयम् (दिवः) द्युलोकस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (रोचने) दीप्तिमति आदित्ये (आ स्थन) आगत्य स्थिताः स्थ, यद्वा, हे (देवाः) ज्ञानप्रकाशयुक्ताः ज्ञानस्य प्रकाशकाश्च विद्वांसः ! (अमी ये) इमे ये यूयम् (दिवः) कीर्त्या प्रकाशितस्य राष्ट्रस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (रोचने) यशस्विनि पदे (आ स्थन) नियुक्ताः स्थ, तान् युष्मान् पृच्छामि यत् (कत्) किम् (वः) युष्माकम् (ऋतम्) सत्यम् अस्ति ? (कत्) किम् (अमृतम्) अमरं तत्त्वम् अस्ति ? (का) का च (वः) युष्माकम् (प्रत्ना) पुराणी पूर्वकालादागता (आहुतिः) होमक्रिया अस्ति ? इति ॥९॥

भावार्थभाषाः -

अत्रोत्तरदानं विनैव केवलं प्रश्नान् कृत्वा जिज्ञासा समुत्पाद्यते, यदेते प्रश्नाः स्वयमेव स्वप्रतिभयोत्तरणीया इति। इमानि तावत्तेषामुत्तराणि भवितुमर्हन्ति। शिरसि ये ज्ञानेन्द्रियरूपा देवाः स्थितास्तेषाम् ऋतमस्ति जीवात्मनि सत्यज्ञानप्रापणम्, तेषाममृतमस्ति वास्तविकम् इन्द्रियतत्त्वं यद्देहेन सहेन्द्रियगोलकानां विनाशेऽपि न म्रियते, प्रत्युत सूक्ष्मशरीरे तिष्ठति, तेषामाहुतिर्विद्यते शरीररक्षायज्ञे ज्ञानप्रदानयज्ञे च स्वकीयो होमः। एवमेव, द्युलोकस्थे सूर्य ये किरणरूपा देवाः स्थितास्तेषाम् ऋतमस्ति स सत्यनियमो यमनुसृत्य ते प्रत्यहं सूर्योदयेन साकं गगनं भूमण्डलं च व्याप्नुवन्ति, तेषाममृतमस्ति शुद्धं मेघजलं यत्ते समुद्रादिभ्यो वाष्पीकरणविधिनोर्ध्व नयन्ति, एतेषां प्रत्नाऽऽहुतिर्विद्यते सनातनकालान्मेघजलस्य पार्थिवाग्नौ होमो येन पृथिव्यामोषधिवनस्पत्यादयः प्ररोहन्ति प्राणिनश्च जीवनं धारयन्ति, यद्वा सर्वेषु ग्रहोपग्रहेषु स्वात्मनो होमो येन पृथिवीमङ्गलबुधचन्द्रादयो ज्योतिषा दीप्यन्ते। तथैव राष्ट्रे ये विद्यादातारो विद्वांसः सन्ति तेषाम् ऋतमस्ति सा सत्यनिष्ठा यामनुसृत्य ते विद्यादाने दत्तचित्ता भवन्ति, तेषाममृतमस्ति तज्ज्ञानं यत्ते सत्पात्रेभ्यः प्रयच्छन्ति, तेषां प्रत्नाऽऽहुतिश्च विद्यते सनातनकालात् प्रचलितेऽध्ययनाध्यापनयज्ञे स्वात्मनो होम इत्यादि सुधीभिः स्वयमेवोह्यम् ॥९॥ विवरणकारोऽस्या ऋचो व्याख्याने ब्रूते—“त्रितस्यार्षम्। वैश्वदेवीयमृक्। अत्रेतिहासमाचक्षते। आप्तस्य ऋषेः त्रयः पुत्रा बभूवुः, एकतः द्वितः त्रित इति। ते यष्टुकामाः याज्यान् यजमानान् गा ययाचिरे लेभिरे च। ता आदाय गृहं जग्मुः। तद् गच्छतः पथा सरस्वत्यास्तीरेण परस्मिन् कूले निषण्णो गवादकः ददर्श। दृष्ट्वा चोत्थाय अभिमुखः सारस्वतीरप अवतीर्य रात्रौ त्रासयामास। तेषां त्रासात् त्रस्यतां त्रितः कूपे निर्जले तृणैर्वल्लीभिश्चावकीर्णे पपात। अन्ये तु पुनः एतदेवेतिहासमन्यथा व्याचक्षते। एकतद्विताभ्यां स्वल्पा गावो लब्धाः त्रितेन च बह्व्यः। तत ईर्ष्यया ताभ्यां कूपे प्रक्षिप्तः इति। तस्य तत्रस्थस्यैव मनः प्रादुरभूत्। कृतयागसङ्कल्पस्य अकृतयागस्य मम मृत्युर्न श्रेयसे। तत्कथमिहस्थ एवाहं सोमं पिबेयमिति। एवं चिन्तयन् यदृच्छया तस्मिन् कूपे वीरुधमुत्तीर्णा ददर्श। स तामादाय सोमोऽयमिति मनसा निश्चित्य यागैश्वर्यमन्यानि अपि यागसाधनानि मना सङ्कल्प्य, शर्करा अभिषवग्राव्णः कृत्वा तां वीरुधमभिसुषाव। अभिषुत्य च देवानाजुहाव। ते देवा आहूताः सन्तः आह्वानकारणम् अनवबुध्यमानाः आविग्ना बभूवुः। तद् बृहस्पतिः शुश्राव। श्रुत्वा च देवानुवाच त्रितस्य यज्ञो वर्तते। तत्र गच्छाम इति। ततस्ते देवाः आजग्मुः। स तानागतान् कूपादुत्तरणार्थी तुष्टाव उपालब्धवांश्च—अमी ये देवा स्थन भवथ, तिष्ठथेत्यर्थः। मध्ये आरोचने दिवः सम्बन्धिनि आदित्यमण्डले। तानहं पृच्छामि। क्व ऋतं सत्यम्, क्व चामृतम्। क्व प्रत्ना पुराणी, चिरन्तनीत्यर्थः, वः युष्माकं प्रत्ना सम्बन्धिनी आहुतिः ? एतदुक्तं भवति—नष्टसत्यासत्यविवेका अकृतज्ञाश्च यूयं, येन मामस्मात् कूपात् नोत्तारयथ इत्युपालम्भः। अयं द्वितीयः पक्षः। अमी ये देवाः स्थन—मध्ये आदित्यमण्डले, आरोचने दिवः द्युलोकादपि दीप्ततरे स्थाने भागं ग्रहीतुमागताः। कत् व ऋतम् ? एतदुक्तं भवति—ऋतम् अन्नम्, तदत्र नास्ति कूपे निर्जले। तत् कत् अमृतं सोमाख्यम्। हविर्धानाः, करम्भः, पुरोडाशः, परीवापः, पयः, उपवसथ्यः, पशुरग्नीषोमीयः, पशुः सवनीयः एवमादिकं हि तत्। अमृतं च क्वात्र विद्यते। कस्मान्मम देवा यागमुद्दिश्य भवन्तोऽत्र समागताः। ततस्तैः कूपादुत्तारितः’’ इति। कल्पनाकलाविलसितमेतत्सर्वं न वास्तविकमिति स्वयमेव सुधियो विभावयन्तु ॥

टिप्पणी: १. १।१०५।५ ऋषिः त्रित आप्त्यः कुत्स आङ्गिरसो वा। ‘अमी ये देवाः स्थन त्रिष्वारोचने दिवः। कद्व ऋतं कदमृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥’ इति पाठः।